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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३१३ वस्तुओं में सादृश्य का ज्ञान करने के लिए प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण रूप में स्वीकार करना आवश्यक है। १२१ बौद्धों का मन्तव्य है कि प्रत्यभिज्ञान गृहीत अर्थ का ग्रहण करता है ,अतः गृहीतग्राही होने से वह अप्रमाण है । विद्यानन्द इस मन्तव्य का निरसन करते हुए प्रतिपादित करते हैं कि प्रत्यभिज्ञान कथञ्चित् अपूर्व अर्थ का ग्राही होता है । प्रत्यभिज्ञान का विषयभूत एक द्रव्य न तो स्मृति से गृहीत होता है और न ही प्रत्यक्ष से,अतःप्रत्यभिज्ञान को गृहीतग्राही नहीं माना जा सकता। यदि स्मरण द्वारा गृहीत अतीत पर्याय और प्रत्यक्ष द्वारा गम्यमान वर्तमान पर्याय से द्रव्य का तादात्म्य होने के कारण प्रत्यभिज्ञान पूर्वार्थग्राही कहा जाता है तो इस प्रकार तो अनुमानप्रमाण भी सर्वथा अपूर्व अर्थ का ग्राही नहीं कहा जा सकता,फलतःप्रत्यभिज्ञान की भांति उसे भी अप्रमाण मानना होगा। व्याप्तिग्राही ज्ञान के द्वारा समस्त साध्यों का सामान्य रूप से ज्ञान हो जाता है,अनुमान के द्वारा उन्हीं ज्ञात साध्यों में से किसी देशविशिष्ट या कालविशिष्ट साध्य का ज्ञान किया जाता है,अतः अनुमान भी सर्वथा अपूर्वार्थ का ग्राही नहीं कहा जा सकता। २२ बाधक प्रमाण का सद्भाव होने से यदि प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण नहीं माना जाता है तो विद्यानन्द के अनुसार यह मन्तव्य भी सर्वथा अयुक्त है,क्योंकि प्रत्यभिज्ञान का बाधक प्रमाण असंभव है। प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रत्यभिज्ञान का बाधक नहीं कहा जा सकता,क्योंकि प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति प्रत्यभिज्ञान के विषय में नहीं होती है। जो जिसके विषय में प्रवृत्त नहीं होता है वह न उसका साधक होता है और न बाधक । जिस प्रकार रूपज्ञान के विषय में रसज्ञान प्रवृत्त नहीं होने से वह रूपज्ञान का न साधक होता है और न बाधक । प्रत्यभिज्ञान का विषय पूर्वदृष्ट एवं दृश्यमान पर्यायों में एकत्व या सादृश्य होता है,जबकि प्रत्यक्ष का विषय मात्र दृश्यमान अर्थ की पर्याय होता है। अनुमान भी प्रत्यभिज्ञान का बाधक नहीं है,क्योंकि वह भी प्रत्यभिज्ञान के विषय में प्रवृत्त नहीं होता है। अनुमान की प्रवृत्ति तो अनुमेयमात्र में होती है । अतःप्रत्यभिज्ञान सकलबाधक प्रमाणों से रहित होने के कारण प्रमाण है। ____ एकत्व प्रत्यभिज्ञान के समान ही सादृश्य प्रत्यभिज्ञान भी बाधकामाव के कारण प्रमाण है । जो प्रत्यभिज्ञान अपने विषय में बाधित होता है वह प्रत्यभिज्ञानाभास है,अप्रमाण है। कभी कभी अपने काटे हुए नाखूनों के पश्चात् नये उत्पन्न नाखूनों में भी “ये वे ही नाखून हैं" इस प्रकार एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता देखा गया है,वह अप्रमाण है,क्योंकि नये नाखूनों में पूर्व नाखूनों से सादृश्य है, एकत्व नहीं,अतः पूर्वापर नाखूनों में सादृश्य प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है तथा एकत्व प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण । अत: अबाधित एकत्व एवं सादृश्य रूप प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है,बाधित प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण । २३ १२१. प्रमाणपरीक्षा, पृ.४३ १२२. प्रमाणपरीक्षा,प्र.४३ १२३.(१) द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, प.४३-४४ (२) द्रष्टव्य, अष्टसहस्री, पृ.२०३-२०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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