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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार
का व्यवच्छेदक एवं कथञ्चित् अगृहीत अर्थ का ग्राहक स्वीकार किया है। वे उसे प्रत्यक्ष की भांति ही प्रमाण मानते हैं । स्मृति अर्थ से उत्पन्न नहीं होती, असत् अर्थ को विषय करती है, इसलिए बौद्ध दार्शनिक उसे अप्रमाण मानते हैं, किन्तु प्रभाचन्द्र के अनुसार कोई भी ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता है एवं बौद्धों द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष भी असत्भूत अर्थ में ही प्रवर्तक होता है, इसलिए स्मृति को इन हेतुओं से अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। स्मृतिज्ञान प्रयोजनभूत है, उसके बिना अनुमान संभव नहीं है । वह परिच्छित्तिविशेष का प्रतिपादक है, इसलिए भी वह प्रत्यक्ष प्रमाण की भांति प्रमाण है । हेमचन्द्रसूरि द्वारा स्मृति - प्रमाण का स्थापन
वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्रसूरि ने भी इसी प्रकार स्मृति में प्रामाण्य सिद्ध किया है, किन्तु ये दोनों दार्शनिक स्मृति को गृहीतग्राही होने पर भी प्रमाण मानते हैं। ८४ आचार्य हेमचन्द्र ने तो स्मृति में प्रामाण्य सिद्ध करते हुए जयन्तभट्ट के इस मन्तव्य का भी उल्लेख किया है कि गृहीतग्राही होने से स्मृति का अप्रामाण्य नहीं है, अपितु अर्थ से उत्पन्न नहीं होने के कारण इसका अप्रामाण्य है । ८५ हेमचन्द्र इसका उत्तर देते हुए बौद्धों एवं नैयायिकों से कहते हैं कि जिस प्रकार दीपक अपनी सामग्री (तेल, बाती आदि) से उत्पन्न होकर तथा घटादि से अनुत्पन्न रहकर भी घटादि को प्रकाशित करता है। उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम तथा इन्द्रिय एवं मन के बल से उत्पन्न स्मृति ज्ञान भी विषय का अवभासक होता है। प्रमाण को अर्थजन्य मानने पर मरुमरीचिका आदि में जलज्ञान भी अर्थजन्य होने से प्रमाण माना जाने लगेगा। इसलिए स्मृति अर्थजन्य नहीं होने पर भी प्रमाण है । योगिज्ञान भी अतीत एवं अनागत अर्थ को विषय करता है, किन्तु वह अर्थ से उत्पन्न नहीं होता, फिर भी उसे प्रमाण माना जाता है । ८६
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स्मृति ज्ञान का प्रामाण्य तो उसकी अविसंवादिता से है तथा अपने विषय की प्रकाशकता से है। हेमचन्द्र कहते हैं कि यदि स्मृति को प्रमाण नहीं माना जाय तो अनुमान को भी जलाञ्जलि देनी होगी, अर्थात् उसे भी अप्रमाण मानना होगा। सभी वादी यह स्वीकार करते हैं कि ("लिङ्गग्रहणसम्बन्ध स्मरणपूर्वकमनुमानमिति ) लिङ्ग एवं लिङ्गी के सम्बन्ध के स्मरण पूर्वक अनुमान होता है। अतः अनुमान का होना स्मरण के आश्रित है। इसलिए स्मरण को प्रमाण माने बिना अनुमान को प्रमाण नहीं माना जा सकता | ८८
समीक्षण
स्मृति को परोक्ष-प्रमाण के भेदों में एक पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित कर जैन दार्शनिकों ने ८४. ग्रहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाऽप्रामाण्यम् । प्रमाणमीमांसा, १.१.४
८५. न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम् ।
अपित्वनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम् ॥- न्यायमञ्जरी, पृ. २१, उद्धत, प्रमाणमीमांसा, पृ. ५
८६. प्रमाणमीमांसा, पृ. ३४
८७. प्रमाणमीमांसा, पृ. ३३
८८. प्रमाणमीमांसा, पृ. ३४
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