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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
"प्रामाण्यं व्यवहारेण"८९ सिद्धान्त को चरितार्थ किया है। यह सिद्धान्त यद्यपि बौद्ध दार्शनिकों ने दिया है,तथापि (१) असत् अर्थ को विषय करने के कारण (२) अर्थ से अनुत्पन्न होने के कारण (३) अनवस्था दोष की प्रसक्ति होने के कारण (४)विसंवादक होने के कारण तथा (५) अर्थाकार नहीं होने के कारण स्मृति ज्ञान को उन्होंने नहीं माना है। किन्तु लौकिक व्यवहार या अर्थक्रिया में प्रवर्तकता को लेकर विचार किया जाय तो स्मृतिज्ञान के प्रामाण्य का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। क्योंकि हमारा समस्त व्यवहार स्मृति पर आधारित है । भाषा का प्रयोग,लेन-देन का समस्त व्यवहार, पूर्वदृष्ट या ज्ञात वस्तु का प्रत्यभिज्ञान स्मृति के बिना नहीं हो सकता । स्मृति के अभाव में व्यक्ति किसी निश्चित कार्य के लिए निश्चित समय पर प्रवृत्त भी नहीं हो सकता । यदि हमें शब्द एवं अर्थ के संकेत का स्मरण नहीं है तो हम समुचित भाषा का प्रयोग करने में भी सक्षम नहीं हो सकते ।यही नहीं घर,परिवार, पिता-पुत्र आदि को पहचानने से भी मना कर सकते हैं। इसलिए व्यवहार में स्मृतिज्ञान प्रमाण है।
बौद्ध दार्शनिकों का मंतव्य है कि स्मृति को प्रमाण मानने पर इच्छा, द्वेष आदि को भी प्रमाण मानना होगा,किन्तु जैनमतानुसार इच्छा,द्वेष आदि अप्रमाण हैं,क्योंकि वे अविसंवादक एवं ज्ञानात्मक नहीं हैं। स्मृति अविसंवादक ज्ञान है । जैन दार्शनिकों ने प्रमाण को ज्ञानात्मक माना है, इसलिए वे इच्छा,द्वेष आदि का प्रामाण्य अंगीकार नहीं करते हैं । स्मृति को जैन दार्शनिकों ने उसी प्रकार प्रमाण माना है,जिस प्रकार वे प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं । प्रमाण का सामान्य लक्षण दोनों में समान रूप से घटित होता है।
स्मृति की उपादेयता न्याय,मीमांसा,वैशेषिक आदि दर्शन भी स्वीकार करते हैं,क्योंकि इसके बिना व्याप्तिज्ञान एवं अनुमान नहीं हो सकता,फिर भी वे उसे स्वतंत्र रूप से ज्ञान का प्रतिपादक नहीं होने के कारण अथवा प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों द्वारा गृहीत अर्थ का माही होने के कारण प्रमाण नहीं मानते हैं । जयन्त भट्ट ने उसे अनर्थजन्यता के कारण प्रमाण नहीं माना है।। ___ स्मृतिज्ञान को प्रमाण मानने का यह अर्थ नहीं है कि जैनमत में सभी स्मृतियां प्रमाण हैं । जैन दार्शनिक उन्हीं स्मृतियों को प्रमाण मानते है,जो अविसंवादक हों,व्यवहार में उपयोगी हों,स्व एवं अर्थ की निश्चायक हों, तथा जिनका फल प्रत्यभिज्ञान हो । अकलङ्क ने यद्यपि स्मृति का प्रामाण्य स्मृति की प्रतिपत्ति से ही माना है, किन्तु स्मृति की सबको अनुभूति होने के पश्चात् भी स्मृति के यथाभूत अर्थ का ज्ञान कराने में अनेक बार विसंवादकता देखी जाती है। उस विसंवादकता का निराकरण स्मृति द्वारा संभव नहीं है । स्मृति तो संस्कार के अनुरूप होती है । पहले प्रत्यक्ष-प्रमाण द्वारा जिस अर्थ का ज्ञान हुआ है,संस्कार यदि सुदृढ या सम्यक् नहीं है, अथवा दीर्घकालिक व्यवधान के कारण संस्कार धूमिल हो गया है तो स्मृति-ज्ञान संवादक या सम्यक् नहीं हो सकता। स्मृति अपने आप में अपनी संवादकता का निर्णय करने में समर्थ नहीं हो सकती । स्मृति की संवादकता का ज्ञान
८९. प्रमाणवार्तिक, १.७
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