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________________ ३०४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा कारण नहीं होता है । ८१ ५- स्मरण का विसंवादक होना भी असिद्ध है, क्योंकि वह अपने ज्ञात अर्थ में अविसंवादक होता है। गृहीत अर्थ की प्राप्ति होना अथवा प्रमाणान्तर में प्रवृत्ति होना अविसंवादकता है । यह दोनों प्रकार की अविसंवादकता स्मृति से प्रतिपन्न स्वयंधारण किये गये द्रव्यादि अर्थों में होती ही है। जिस स्मृति में विसंवाद होता है वह स्मृत्याभास कहलाता है, तथा जिस स्मृति में अविसंवाद होता है वह प्रमाण होता है । ६- स्मृति को समारोप का अव्यवच्छेदक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्मृति के द्वारा गृहीत पदार्थ में विपरीत आरोप का प्रवेश नहीं होता । फलतः स्मृति समारोप की व्यवच्छेदक होती है। जो समारोप का व्यवच्छेदक होता है वह प्रमाण होता है, यथा अनुमान । स्मृति भी समारोप की व्यवच्छेदक होने से प्रमाण है। प्रभाचन्द्र ने इस सन्दर्भ में प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रतिपादित किया है कि साध्य एवं साधन के नियत सम्बन्ध का स्मरण करने के लिए ही अनुमान काल में दृष्टान्त का कथन किया जाता है । बौद्ध परार्थानुमान में दृष्टान्त का कथन करना अभीष्ट मानते हैं। दृष्टान्त का कथन नहीं किये जाने पर उन्हें साध्य-साधन के सम्बन्ध में विस्मरण, संशय एवं विपर्ययरूप समारोप की आशंका रहती है। अतः उस समारोप का व्यवच्छेद करने के लिए वे दृष्टान्त का कथन करते हैं । दृष्टान्त का कथन स्मृति के बिना नहीं होता । अतः इस प्रकार समारोप की व्यवच्छेदक होने से स्मृति प्रमाण है । ८२ I ७- स्मृति प्रयोजन की भी साधक है। अतः उसे प्रयोजन का असाधक मानकर अप्रमाण कहना युक्त नहीं है। अनुमान में प्रवृत्ति कराना रूप साध्य ही स्मृति का प्रयोजन है । अनुमान साध्य से प्रतिबद्ध हेतु से प्रवृत्त होता है । साध्य से हेतु का प्रतिबन्ध, सत्तामात्र से अनुमान की प्रवृत्ति का अंग होता है, या ज्ञात होकर, अथवा स्मृति के द्वारा अंगीकृत होकर ? प्रथम पक्ष में नालिकेर द्वीप से आये हुए पुरुष को जिसे अग्नि एवं धूम का अविनाभाव सम्बन्ध ज्ञात नहीं है, उसे धूमदर्शन से अग्नि की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती । द्वितीयपक्ष में बाल्यावस्था में ज्ञात अग्नि एवं धूम सम्बन्ध के वृद्धावस्था में विस्मृत हो जाने पर भी धूम दर्शन से अग्नि का ज्ञान हो जाना चाहिए, किन्तु धूम एवं अग्नि का सम्बन्ध विस्मृत हो जाने से धूम दिखाई देने पर भी अग्नि का ज्ञान नहीं हो सकता। तृतीय पक्ष में तो स्मृति की प्रमाणता का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अनुमान की प्रवृत्ति का अंग है । जो ज्ञान अनुमान की प्रवृत्ति का अंग है वह प्रमाण है यथा प्रत्यक्ष । स्मरण भी अनुमान की प्रवृत्ति का अंग है, अतः वह भी प्रमाण है । ८३ इस प्रकार प्रभाचन्द्र ने अकलङ्क एवं विद्यानन्द की भाँति स्मृतिज्ञान को अविसंवादक, समारोप ८१. ज्ञान की अर्थसे उत्पत्ति नहीं होती है, इसका प्रतिपादन अर्थाकारता का निरसन करते समय षष्ठ अध्याय में किया गया है । द्रष्टव्य, पृ. ३६८ ८२. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. २८२ ८३. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पृ. ४०८-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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