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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा मानना चाहिए।५४ जब स्मृति विसंवादयुक्त होती है तो वह अप्रमाण या प्रमाणाभास कही जाती है .५५ २९८ - (२) कथञ्चित् अगृहीतग्राही होने से प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत विषय का प्राही होने से यदि स्मृति को अप्रमाण कहा जाता है, तो यह उचित नहीं है, क्योंकि स्मृति को प्रमाण मानने का प्रत्यक्ष से भिन्न प्रयोजन है ।' ,५६ 'प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात अर्थ के सदृश आकार एवं भेद विशेषों की उत्तरोत्तर पर्यायविशेष अर्थक्रिया को सिद्ध करने की अभिलाषा होने पर स्मृति का प्रामाण्य अविरुद्ध रहता है । ५७. स्मृति के द्वारा भी प्रत्यक्ष की भांति अज्ञात का निवारण होता है तथा अपने विषय में प्रवृत्ति होती है । ५८ इसलिए स्मृति प्रमाण है । दूसरी बात यह है कि स्मृति में कालादि के भेद से ज्ञान अगृहीत ग्राही ही रहता है, अन्यथा अनधिगत अर्थ की अधिगति रूप प्रत्यक्ष की प्रमाणता भी नहीं मानी जा सकती । ५९ (३) स्मृति के बिना व्याप्तिज्ञान नहीं होने से अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति कब होती है ? यदि लिङ्ग एवं लिङ्गी की समस्त क्षेत्र एवं काल में व्याप्ति जानने के पश्चात् अनुमेय का ज्ञान करने के लिए अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति होती है तो यह व्याप्तिज्ञान स्मृति के बिना असिद्ध है । ६° 'जितना भी कोई धूमवान् प्रदेश है वह सब अग्निमान् है' यह व्याप्ति सिद्ध नहीं होने पर अनुमेय अर्थ का ज्ञान होना शक्य नहीं है। यदि व्याप्तिज्ञान के सिद्ध हुए बिना ही अनुमान हो जाता है तो वह स्मृत्यन्तर से भिन्न नहीं है। इसलिए लिङ्ग एवं लिङ्गी ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य की व्यवस्था स्मृति के बिना भंग हो जाती है। स्वयं अनुभव किये बिना साकल्य से व्याप्ति नहीं हो सकती। यदि देशादि से रहित सामान्य धूमादि को विषय करने वाली व्याप्ति से पर्वतादि विशिष्ट अग्नि आदि का ज्ञान हो जाता है। तो फिर पूर्व अनुभूत स्मृति से भी उस प्रकार की व्याप्ति हो जाती है। ६ (४) अज्ञान की निवृत्ति करने एवं (५) विषय में प्रवर्तक होने से भी अकलङ्क के मत में स्मृति प्रमाण है । भट्ट अकलङ्क कहते हैं कि स्मृति प्रमाण है तथा उसका फल प्रत्यभिज्ञा है । बिना स्मृति के प्रत्यभिज्ञा रूप फल नहीं हो सकता । अकलङ्क के मत में स्मृति का प्रामाण्य स्मृतिज्ञान से ही हो जाता है । ६२ ५४. न हि तयाऽर्थं परिच्छिद्य अर्थक्रियायां विसंवाद्यते ।- सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, १.९, पृ. ३८ ५५. मिथ्या तद्विपर्ययात् । - सिद्धिविनिश्चय, ३.२ ५६. गृहीतग्रहणान्नो चेन्न प्रयोजनभेदतः ।-सिद्धिविनिश्चय, ३.२ ५७. क्वचित् सदृशाकार भेदविशेषाणामुत्तरोत्तरपर्यायविशेषसाध्यार्थक्रियावाञ्छायां तथैव प्रामाण्यविरोधात् । - सिद्धिवि निश्चयवृत्ति, ३.२ पृ. १७५ ५८. अनन्तवीर्य, सिद्धिविनिश्चयटीका, पृ. १७६ ५९. अन्यथा कालादिभेदेन अनधिगतार्थाधिगतेरपि प्रमाणतानभ्युपगमात् । - सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, ३.२ पृ. १७५ ६०. साकल्येनादितो व्याप्ति: पूर्व चेल्लिङ्गलिङ्गिनोः । अनुमेयस्मृतिः सिद्धा न प्रमाणं विशेषवत् ॥ - सिद्धिविनिश्चय, ३.३ ६१. यावान् कश्चिद् धूमवान् प्रदेशः स सर्वोऽपि अग्निमानिति व्याप्तावसिद्धायामनुमेयप्रतिपत्त्यनुपपत्ते: । सिद्धी एवमनुमानं स्मृत्यन्तरान्न विशेष्येत । ततो लिङ्गलिङ्गिज्ञानयो: प्रमाणेतरव्यवस्था व्यतिकीर्येत । स्वयमनुभूताद् व्यतिरेके पुनरनवयवेन व्याप्तिसिद्धेरयोगात् । सामान्यविषया व्याप्तिस्तद्विशिष्टानुमितेः इति चेत्; पूर्वानुभूतस्मृतेरपि तथाविधविशेषानिराकरणात् यत्किञ्चिदेतत् । - सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, ३. ३, पृ. १७७ ६२. प्रत्यभिज्ञा फलं तस्या: प्रामाण्यं प्रतिपत्तित: ।-प्रमाणसंग्रह, १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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