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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ___ इस प्रकार भट्ट अकलङ्क अर्थक्रिया में अविसंवादक होने से, काल विशेष की दृष्टि से अनधिगतग्राही होने से तथा अनुमानप्रमाण की प्रवृत्ति में लिङ्ग-लिङ्गी ज्ञान का ग्राहक होने से स्मृतिज्ञान को प्रमाण मानते हैं। विद्यानन्द के द्वारा स्मृति-प्रमाण की स्थापना (१) स्मृति के अभाव में प्रमाण-प्रमेय शून्यता -विद्यानन्द स्मृति को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित करते हुए कहते हैं कि स्मृति को अप्रमाण मानने पर प्रत्यभिज्ञान की प्रमाणता शक्य नहीं है। प्रत्यभिज्ञान के अप्रमाण होने पर तर्क की व्यवस्था नहीं होती । तर्क के प्रतिष्ठित नहीं होने पर अनुमान की प्रवृत्ति अशक्य है। अनुमान के प्रवृत्त नहीं होने पर प्रत्यक्ष का प्रामाण्य अवस्थित नहीं रहता है । इस प्रकार समस्त प्रमाणों के शून्य होने पर प्रमेय भी शून्य हो जाता है । अर्थात् स्मृति को अप्रमाण मानने पर समस्त प्रमाणों एवं प्रमेयों के अभाव का प्रसंग आता है, किन्तु यह शून्यवाद भी बिना प्रमाण के सिद्ध नहीं होता। अतः स्मृति को प्रमाण मानना चाहिए।६३ (२) स्मृति भी विशिष्ट ज्ञानयुक्त-विद्यानन्द कहते हैं कि यदि गृहीतग्राही होने से स्मृति में प्रामाण्य नहीं माना जाता है तो धारावाही इन्द्रियज्ञान में भी प्रामाण्य संभव नहीं है। यदि धारावाही इन्द्रियप्रत्यक्ष में भी बौद्धों ने विशिष्ट उपयोग के अभाव में प्रमाणता नहीं मानी है तो जैन भी विशिष्ट उपयोग(ज्ञान) के अभाव में स्मरण को प्रमाण नहीं मानते हैं । वस्तुतः स्मरण के द्वारा भी प्रत्यक्ष की भांति विशिष्ट अर्थ की ज्ञप्ति होती है,अत: उसका भी प्रामाण्य सिद्ध है । स्मरण के द्वारा स्व और अर्थ का ज्ञान होने पर प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं देखी जाती है, जिससे विचारशील लोगों की स्मृति से प्रवृत्ति का निवारण किया जाय । अत: विचारशीलों को उसका प्रामाण्य अंगीकार करना चाहिए।६४ (३) प्रत्यक्ष पूर्वक होने से स्पति अप्रमाण नहीं होती - स्मरण प्रत्यक्षपूर्वक होता है, इसलिए उसे अप्रमाण कहा जाता है तो भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्षपूर्वक होता है, तथापि अनुमान का प्रामाण्य बौद्धों को इष्ट है । स्मरण को प्रत्यक्षपूर्वक होने के कारण अप्रमाण मानने पर तो अनुमान को भी प्रमाण मानना शक्य नहीं है ६५ अतः उस स्थिति में चार्वाक की भांति बौद्धों को भी ६३. स्मृते : प्रमाणताऽपाये संज्ञाया : न प्रमाणता। तदप्रमाणतायां तु चिंता न व्यवतिष्ठते । तदप्रतिष्ठितो क्वानमानं नाम प्रवर्तते । तदप्रवर्तनेऽध्यक्षप्रामाण्यं नावतिष्ठते ।। तत: प्रमाणशून्यत्वात्प्रमेयस्यापि शून्यता ।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.९-११. ६४. गृहीतग्रहणात्तत्र न स्मृतेश्चेत्रमाणता । धारावाह्यक्षविज्ञानस्यैवं लभ्येत केन सा ।। विशिष्टस्योपयोगस्याभावे सापिन चेन्मता ॥ तभावे स्मरणोऽप्यक्षज्ञानवन्मानताऽस्तु नः ॥ स्मृत्या स्वार्थ परिच्छिद्य प्रवृत्तौ न च बाध्यते । येन प्रेक्षावतां तस्या : प्रवृत्तिर्विनिवार्यते ॥-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १.१३.१५-१७ ६५. व्यवहारप्रवृत्तेहेंतो : प्रत्यक्षमूलस्मरणस्यापि प्रमाणतां प्रत्याचक्षीत सोऽनुमानमपि प्रत्यक्षात्पृथक् प्रमाणं मामस्त तस्य प्रत्यक्षमूलत्वात् ।-तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.१८ वृत्ति, पृ. २०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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