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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार २९७ दिइनाग के प्रमाणसमुच्चय में स्मृतिज्ञान को अनवस्थादोष के कारण प्रमाण नहीं माना गया। दिङ्नाग का तर्क है कि यदि सभी ज्ञानों का प्रामाण्य स्वीकार किया जाय तो इच्छा,द्वेष आदि को भी प्रमाण मानना होगा इससे प्रमाण की अनवस्था आ जाती है।४६ वैसे दिङ्नाग के मत में अज्ञात अर्थ के ज्ञापक ज्ञान को प्रमाण माना गया है, इसलिए भी स्मृति उनके मत में प्रमाण नहीं ठहरती है,क्योंकि स्मृति ज्ञात अर्थ को ही जानती है । धर्मकीर्ति को भी स्मृति का प्रामाण्य अभीष्ट नहीं है,क्योंकि स्मृति अतीत अर्थ में प्रवृत्त होती है,अगृहीत अर्थ में नहीं। स्मृति के प्रामाण्य का एक कारण वे यह देते हैं कि स्मृति अर्थ से उत्पन्न नहीं होती,वह तो अनुभव से उत्पन्न होती है।४८ अर्थ से उत्पन्न नहीं होने के कारण वह अर्थाकार भी नहीं होती।४९ प्रमाणज्ञान अर्थाकार होता है । बौद्धों के अनुसार प्रमाण का एक लक्षण अर्थसारूप्य है । स्मृति में अर्थसरूपता नहीं होने के कारण स्मृति प्रमाण नहीं होती । स्मृति में अर्थाकारता के अभाव में अविसंवादकता भी सिद्ध नहीं होती,इसलिए धर्मकीर्ति के मत में भी स्मृति अप्रमाण है । शान्तरक्षित, कमलशील आदि आचार्यों ने भी गृहीतग्राही आदि हेतुओं से स्मृति को अप्रमाण माना है।५० जैनों द्वारा स्मृति-प्रमाण का प्रतिष्ठापन जैनदार्शनिक अकलङ्क एवं उनके अनन्तर विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने स्मृति ज्ञान को पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। भट्ट अकलङ्कद्वारा स्मृति-प्रमाण का स्थापन । भट्ट अकलङ्कने स्मृति को पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक तर्क उपस्थापित किये हैं। (१) अविसंवादी ज्ञान होने से-स्मृति प्रमाण है क्योंकि वह अविसंवादी ज्ञान है।५१ प्रत्यक्ष भी अविसंवादी होने से प्रमाण है,अर्थाकार होने से नहीं । यदि प्रत्यक्ष को अर्थाकार होने से प्रमाण माना जायेगा तो व्यवस्था नहीं बन सकेगी, क्योंकि प्रत्यक्ष का ग्राह्य एवं प्राप्य अर्थ भिन्न होता है।५२ उसके द्वारा अर्थक्रिया में विसंवाद उत्पन्न नहीं होता, इसलिए प्रत्यक्ष को प्रमाण कहा जाता है ।५३ स्मृति के द्वारा भी अर्थक्रिया में विसंवाद उत्पन्न नहीं होता, अतः उसे भी प्रत्यक्ष की भांति प्रमाण ४६. यदि सर्वेषां ज्ञानानां प्रमाणत्वमिष्यते प्रमाणानवस्था प्रसज्यते ।-प्रमाणसमुच्चय, वृत्ति, पृ.११ ४७. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, ३८ ४८. नार्थाद् भावस्तदाभावात्।-प्रमाणवार्तिक, २.३७५ ४९. स चाकाररहितः सेदानीं तद्वती कथम्।-प्रमाणवार्तिक,२.३७४ ५०. यद् गृहीतग्राहि ज्ञानं न तत्प्रमाणम्, यथा स्मृतिः ।-तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, १२९७ पृ.४७४-७५ ५१. प्रमाणमविसंवादात् ।- सिद्धिविनिश्चय, ३.२ ५२.(१)प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यमविसंवादात् न पुनराकारानुकारितया अतिप्रसंगात् ।-सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, ३.२, पृ.१७५ (२) प्रमाणमर्थसंवादात् प्रत्यक्षान्वयिनी स्मृति: ।-प्रमाणसंग्रह, का १०, अकलङ्कग्रन्थत्रय, पृ.९९ ५३. अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ।- प्रमाणवार्तिक, २.५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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