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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार २९३ जैनन्याय के प्रमुख आचार्य अकलङ्क ने कहा है कि स्मृति,प्रत्यभिज्ञान, तर्क आदि को पृथक् प्रमाण मानना आवश्यक है,क्योंकि “जितना भी कोई धूम है वह कालान्तर अथवा देशान्तर में अग्नि का ही कार्य है अन्य अर्थ का नहीं” इतना व्यापार प्रत्यक्ष-प्रमाण नहीं कर सकता,क्योंकि वह बौद्ध मत में सन्निहित विषय के बल से उत्पन्न होने के कारण निर्विकल्पक होता है। अनुमानान्तर से भी यह व्यापार नहीं हो सकता,क्योंकि उस अनुमान के लिङ्ग-लिङ्गी सम्बन्ध को जानने में भी अन्य अनुमान की कल्पना करनी होगी। सम्पूर्ण रूप से लिङ्ग एवं लिङ्गी की व्याप्ति के असिद्ध रहने से कोई अनुमान-प्रमाण व्याप्ति-ज्ञान करने में समर्थ नहीं होता । इसलिए प्रत्यक्ष एवं अनुमान दो ही प्रमाण हैं' यह मानना उचित नहीं है,क्योंकि लिङ्ग एवं लिङ्गी ज्ञान के लिए स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क नामक अन्य प्रमाणों को भी स्वीकार करना आवश्यक है ।२० भारतीय दर्शन को जैन न्याय की अनूठी देन जैन नैयायिकों का भारतीय दर्शन को यह अनूठा अवदान है कि उन्होंने स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को पथक प्रमाणों के रूप में प्रतिष्ठित किया। भारतीय दर्शन के प्रायः समस्त प्रस्थानों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क की चर्चा मिलती है, किन्तु वे इन्हें पृथक् प्रमाणों के रूप में प्रतिष्ठित नहीं करते हैं,जबकि लोक-व्यवहार एवं अनुमान-प्रक्रिया में इन तीनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । बौद्धों ने भी इन तीनों को प्रमाण नहीं माना है एवं आगमप्रमाण का अनुमान में अन्तर्भाव कर लिया है । जैनों ने इसका निरसन कर इन चारों का पृथक् प्रामाण्य स्थापित किया है। अब जैनों द्वारा मान्य स्मृति,प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम प्रमाण पर चर्चा करने के साथ बौद्ध मान्य 'अपोह' पर भी विचार किया जाएगा। स्मृति-प्रमाण स्मृति का स्वरूप जैन दार्शनिकों ने स्मृति को प्रत्यक्ष एवं अनुमान से पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में स्मृति को भी गिनाया गया है,यथा-'मतिः स्मृतिःसंज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम्।२१ भट्ट अकलङ्कने मतिज्ञान के इन पर्यायवाची शब्दों को आधार बनाकर ही क्रमशः स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क प्रमाणों को स्थापित किया है। स्मृति' शब्द से उन्होंने स्मृति प्रमाण, संज्ञा' शब्द से प्रत्यभिज्ञान प्रमाण एवं चिन्ता' शब्द से तर्क प्रमाण का विकास किया। २०. अविकल्पधिया लिहंन किञ्चित्सम्प्रतीयते । नानुमानादसिद्धत्वात् प्रमाणान्तरमाञ्जसम्॥-लघीयस्त्रय, ११-१२ न हि प्रत्यक्षं “यावान् कश्चिद् धूमः कालान्तरे देशान्तरे च पावकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्य इतीयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वात् । नाप्यनुमानान्तरमः सर्वत्राऽविशेषात् । न हि साकल्येन लिङ्गस्य लिङ्गिना व्याप्तेरसिद्धो क्वचित् किशिदनुमानं नाम । तन्नाप्रत्यक्षमनुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणम्" इत्ययुक्तम् लिङ्गप्रतिपत्तेः प्रमा णान्तरत्वात् ।-लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कपत्रय, पृ०५ २१. तत्वार्थसूत्र , १.१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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