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________________ २९२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा है या अज्ञात रहकर? यदि अज्ञात रहकर प्रमाण-द्वित्व का कारण बनता है तब तो सबको समान रूप से उसकी प्रतिपत्ति होनी चाहिए,विप्रतिपत्ति का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता। यदि ज्ञात होकर वह प्रमाण-द्वित्व का कारण बनता है तो उसका ज्ञान किस प्रमाण से होता है ? प्रत्यक्ष से तो प्रमेय-द्वित्व का ज्ञान हो नहीं सकता,क्योंकि वह मात्र स्वलक्षण प्रमेय को विषय करता है तथा इसी प्रकार अनुमान मात्र सामान्यलक्षण प्रमेय को विषय करता है,अतः उससे भी प्रमेयद्वित्व का ज्ञान नहीं हो सकता।१६ २. यदि प्रत्यक्ष-प्रमाण से ही प्रमेय-द्वैविध्य की सिद्धि हो जाती है तो प्रत्यक्ष-प्रमाण को सविकल्पक मानना पड़ेगा तथा विषय-सांकर्य का भी दोष आयेगा। इसी प्रकार अनुमान-प्रमाण द्वारा भी प्रमेय-द्वित्व का ज्ञान मानने पर विषय-सांकर्य दोष आता है तथा दो प्रमाण मानने का आधार भी खण्डित हो जाता है,क्योंकि जब एक ही प्रमाण स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण दोनों प्रमेयों को जान सकता है तब प्रमेय-द्वित्व के आधार पर प्रमाण-द्वित्व का स्थापन नहीं किया जा सकता। ___३.यदि प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों प्रमाण मिलकर प्रमेय-द्वय की सिद्धि करते हैं तो भी प्रमेय-द्वय का ज्ञान प्रमाण-द्वित्व को सिद्ध नहीं करता,क्योंकि ऐसी स्थिति में देवदत्त एवं यज्ञदत्त के द्वारा ज्ञात धूमद्वित्व से अग्निद्वित्व की सिद्धि होना चाहिए,जबकि ऐसा होता नहीं है। दूसरी बात यह है कि प्रमाणद्वित्व से प्रमेय-द्वित्व को तथा प्रमेयद्वित्व से प्रमाण-द्वित्व को सिद्ध करने पर अन्योन्याश्रय दोष आता है।८ ४.बौद्ध यदि लिङ्ग से अनुमित सामान्यलक्षण द्वारा ही स्वलक्षण का ज्ञान होना स्वीकार करते हैं तो भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि सामान्यलक्षण द्वारा स्वलक्षण की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। सामान्यलक्षण के साथ स्वलक्षण का कोई अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है। यदि सामान्य के द्वारा स्वलक्षण सामान्यरूप से जाना जाता है तो इस प्रकार सामान्य से स्वलक्षण का नहीं, अपितु अपरसामान्य आदि का ज्ञान होगा। इस प्रकार लिङ्ग से अनुमिति के द्वारा भी प्रमेय-द्वित्व का ज्ञान नहीं होता,तब भला उससे प्रमाण-द्वय का व्यवस्थापन कैसे हो सकता है ? १९ जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि प्रमेय एक ही प्रकार का है और वह सामान्य-विशेषात्मक है। अतः प्रमेय के आधार पर दो प्रमाणों का व्यवस्थापन उचित नहीं है। जैन दार्शनिक परम्परा में स्मृति,प्रत्यभिज्ञान,तर्क एवं आगम का पृथक् प्रामाण्य स्थापित किया गया है । बौद्ध दार्शनिकों ने उनमें स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को अप्रमाण माना है एवं आगम का अपोह द्वारा अनुमान में अन्तर्भाव किया है। प्रत्यक्ष एवं अनुमान नामक दो ही प्रमाणों को स्वीकार करने वाले बौद्धों का खण्डन करते हुए १६.(१) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० ४८३ (२ स्याद्वादरत्नाकर, पृ० २७०-७१ १७.(१) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. ४८३ (२)स्याद्वादरत्नाकर, पृ० २७१ १८. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ०४८४ (२) स्याद्वादरलाकर, पृ० २७१ १९. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० ४८१-८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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