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________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार २९१ एवं आगम के रूप में पांच भेद जैनदार्शनिक भट्ट अकलङ्क से प्रारम्भ हुए दिखाई देते हैं । १२ अकलङ्क ने ही जैनन्याय को व्यवस्थित रूप देते समय इन भेदों का युक्तिपुरस्सर प्रणयन किया है। प्रमाणव्यवस्था एवं प्रमाणसंप्लव बौद्ध दार्शनिक प्रमाणव्यवस्थावादी हैं । वे प्रत्येक प्रमेय के लिए भिन्न प्रमाण का होना आवश्यक मानते हैं । न्याय,मीमांसा एवं जैन दार्शनिकों की भांति वे प्रमाणसंप्लववादी नहीं हैं। प्रमाणसंप्लव के अनुसार एक प्रमेय को एक से अधिक प्रमाणों के द्वारा जाना जाता है । यथा - आगम एवं अनुमान से जानने के पश्चात् किसी प्रमेय को प्रत्यक्ष से भी जाना जा सकता है, अर्थात् एक प्रमेय को जानने के लिए एक से अधिक प्रमाणों का अवलम्बन लेना प्रमाणसंप्लव है । बौद्ध दार्शनिक ऐसा नहीं मानते हैं। इसीलिए बौद्ध दार्शनिक दिइनाग ने स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया है कि प्रमाण दो ही हैं,कम एवं अधिक नहीं,क्योंकि प्रमेय भी दो ही हैं - स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण । २स्वलक्षण प्रमेय प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय है तथा सामान्यलक्षण अनुमान-प्रमाण का विषय । स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण से भिन्न प्रमेय नहीं है। इसलिए प्रत्यक्ष एवं अनुमान ये दो ही प्रमाण हैं, इनके अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण नहीं है ।१४ जैन दार्शनिकों ने प्रमेय के आधार पर प्रमाणों की संख्या का निर्धारण नहीं किया,क्योंकि वे 'सामान्यविशेषात्मक रूप में एक ही प्रकार का प्रमेय मानते हैं, वे उस प्रमेय को जानने के लिए ही प्रत्यक्ष,स्मृति,प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाणों का अवलम्बन लेते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो जैन दार्शनिक प्रमाणसंप्लववादी हैं ,अतः उन्हें प्रमेय के आधार पर प्रमाणों के व्यवस्थापन की आवश्यकता नहीं बौद्धमत की आलोचना __ जैन दार्शनिकों ने बौद्ध प्रमाण-संख्या की आलोचना करते हुए प्रतिपादित किया है कि प्रमेयद्वित्व के आधार पर प्रमाण-द्वय का अवधारण नहीं किया जा सकता,क्योंकि प्रमेय-द्वित्व का निश्चय किसी भी प्रमाण से संभव नहीं है। यदि प्रमाण-द्वित्व से प्रमेय-द्वित्व का निश्चय किया जाता है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है । जैन दार्शनिकों द्वारा किये गये एतद्विषयक आलोचन के कुछ बिन्दु आगे प्रस्तुत हैं। १.जैनदार्शनिक बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि प्रमेय-द्वित्व ज्ञात होकर प्रमाणद्वित्व का कारण बनता १२. लघीयस्त्रय, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ० ४-५ १३. अत्र प्रमाणं द्विविधमेव । कुतश्चेत् । द्विलक्षणं प्रमेयं । स्वसामान्यलक्षणाभ्यां भिन्नलक्षणं प्रमेयान्तरं नास्ति । -प्रमा णसमुच्चयवृत्ति, १.२, पृ०४ १४. स्वलक्षणविषयं प्रत्यक्षमेव । सामान्यलक्षणविषयकमनुमानमेव । प्रमाणान्तरं नास्ति ।-जिनेन्द्रबुद्धि, विशालामलवती, प्रमाणसमुच्चय, पृ०६ १५. सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः ।-परीक्षामुख, ४.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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