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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
'अभिनिबोध' शब्द से उन्होंने अनुमानप्रमाण का ग्रहण किया है । इसके साथ ही उन्होंने स्मृति को प्रत्यभिज्ञान का,प्रत्यभिज्ञान को तर्क का एवं तर्क को अनुमान का कारण माना है। २२
भट्ट अकलङ्क से पूर्व जैनदर्शन में स्मृति को प्रमाण-भेदों में स्थान नहीं मिला था। उनके पूर्ववर्ती सिद्धसेन दिवाकर ने 'न्यायावतार' में परोक्ष प्रमाण के दो ही भेद किए हैं - अनुमान एवं आगम । स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क की चर्चा सिद्धसेन नहीं करते हैं। इस दृष्टि से जैनन्याय को अकलङ्क का यह महान् अवदान है । भट्ट अकलङ्कके पश्चात् लगभग समस्त दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दार्शनिकों ने इन तीनों प्रमाणों की अविसंवादकता सिद्ध कर इन्हें प्रमाण कोटि में रखा है तथा अन्य दर्शन-प्रस्थानों के द्वारा अप्रमाण माने जाने पर उनका खण्डन किया है।
स्मृति को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित करने वाले भट्ट अकलङ्कने शब्द योजना के पूर्व इसे मतिज्ञान में तथा शब्दयोजना के पश्चात् श्रुतज्ञान में सम्मिलित किया है ।२३ विद्यानन्द ने “तत्” (वह) आकार वाले एवं अनुभूत अर्थ को विषय करने वाले ज्ञान को स्मृति कहा है ।२४ माणिक्यनन्दी के अनुसार संस्कार की जागृति से “तत्” (वह) आकारक ज्ञान स्मृति है ।२५ संस्कार को जैन दर्शन में “धारणा" भी कहा गया है । निर्णीत या अनुभूत अर्थ के ज्ञान का दृढतापूर्वक गृहीत होना धारणा अथवा संस्कार है। संस्कार से स्मृति का जन्म होता है । इसलिए अकलङ्कने स्मृति को धारणा-प्रमाण का फल कहा है । स्मृति भी प्रमाण है,क्योंकि उसका फल प्रत्यभिज्ञान है ।२६ बिना स्मृति के प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । स्मृति के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए वादिदेवसूरि कहते हैं कि संस्कार की जागृति से उत्पन्न, अनुभूत अर्थ को विषय करने वाला,एवं तत् (वह) आकार वाला ज्ञान स्मृति है। हेमचन्द्र सूरि के अनुसार वासना अर्थात् संस्कार के उद्बोध से उत्पन्न तत् (वह) आकार ज्ञान स्मृति है। २८ वैशेषिक दर्शन में कणाद ने आत्मा एवं मन के संयोगविशेष संस्कार से उत्पन्न ज्ञान को स्मृति प्रतिपादित किया है।९ प्रशस्तपाद ने स्मृति को विद्या का एक प्रकार माना है । वे चार प्रकार की विद्याओं का निरूपण करते हैं-प्रत्यक्ष ,अनुमान,स्मृति एवं आर्षज्ञान । प्रशस्तपाद ने स्मृति को दृष्ट, श्रुत एवं अनुभूत अर्थों में शेषानुव्यवसाय (अनुमेय ज्ञान),इच्छा, अनुस्मरण एवं द्वेष का हेतु बतलाया २२. स्मृतिः संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य (प्रत्यभिज्ञानस्य)। संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य । चिन्ता अमिनिबोधस्य अनुमानादेः।
लघीयत्रयवृत्ति, अकलङ्कअन्यत्रय, पृ०५ २३. ज्ञानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता वाऽभिनिबोधिकम्। __ प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ।।- लघीयस्त्रय, १०-११ २४. तदित्याकारानुभूतार्थविषया स्मृतिः ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ. ४२ २५. संस्कारोबोधनिबन्धना तदित्याकारा स्मृतिः ।-परीक्षामुख, ३.३ २६. अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा । स्मृतिः संज्ञायाः । --लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कअन्यत्रय, पृ०५ २७. तत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतं, अनुभूतार्थविषय, तदित्याकारं वेदनं स्मरणम् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.३ २८. वासनोदोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः।-प्रमाणमीमांसा, १.२.३ २९. आत्मनः संयोगविशेषात् संस्काराच्च स्मृतिः।-वैशेषिकसूत्र, ९.२.६ ३०. विद्यापि चतुर्विधा । प्रत्यक्षलैङ्गिकस्मृत्याईलक्षणा ।-प्रशस्तपादभाष्य, प्रत्यक्षप्रकरण, पृ० १५३
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