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________________ अनुमान-प्रमाण २८९ है । अतः यह साधनांग नहीं है।” जैन दर्शन के अनुसार हेतु सम्यक् एवं स्वपक्ष को सिद्ध करने वाला होना चाहिए,उसमें साधर्म्य प्रयोग के पश्चात् वैधर्म्य एवं वैधर्म्य प्रयोग के पश्चात् साधर्म्य प्रयोग से कोई अन्तर नहीं आता है । साध्यसिद्धि के अप्रतिबंधक हेतु के अधिक कहने मात्र से निग्रह होना शक्य नहीं है। प्रभाचन्द्र के अनुसार वादी अथवा प्रतिवादी के द्वारा स्वपक्षसिद्धि करना आवश्यक है । हेतु में साधर्म्य एवं वैधर्म्य प्रयोग से वचनाधिक्य मानकर निग्रह करना सर्वथा अनुचित है।४१४ अदोषोद्भावन निग्रहस्थान का भी जैन दार्शनिकों ने खण्डन किया है तथा यह सिद्ध किया है कि वादी के दोषों का उद्भावन करने से प्रतिवादी का निग्रह नहीं होता है। प्रतिवादी का निग्रह उसके द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि न किये जाने पर निर्भर करता है । अदोषोभावन के प्रभाचन्द्र ने दो अर्थ प्रकट किये हैं। प्रथम अर्थ के अनुसार प्रसज्य प्रतिषेध द्वारा दोषों के उद्भावन का अभावमात्र अदोषोद्भावन होता है तथा द्वितीय अर्थ के अनुसार पर्युदास प्रतिषेध द्वारा दोषाभासों या अन्य दोषों का उद्भावन करना अदोषोद्भावन होता है। १५ ___ सारांश यह है कि बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने न्यायदर्शन में प्रतिपादित २२ निग्रहस्थानों को अनुपयोगी सिद्ध कर दो निग्रहस्थानों का प्रतिपादन किया है, किन्तु जैन दार्शनिकों ने उन दो निग्रहस्थानों का भी खण्डन किया है। धर्मकीर्ति के द्वारा प्रतिपादित निग्रहस्थानों के विषय में पं. सुखलाल संघवी लिखते हैं कि धर्मकीर्ति ने जो असाधनांगवचन और अदोषोद्भावन द्वारा जय-पराजय की व्यवस्था की है उसमें इतनी जटिलता और दुरूहता आ गयी है कि अनेक प्रसंगों में सरलता से यह निर्णय करना ही असंभव हो गया कि असाधनांगवचन तथा अदोषोद्भावन है या नहीं? इस जटिलता और दुरूहता से बचने एवं सरलता से निर्णय करने की दृष्टि से अकलाने धर्मकीर्तिकृत जय-पराजय व्यवस्था का संशोधन किया। पंडित सुखलालजी के मत में अकलङ्ककृत संशोधन में धर्मकीर्ति सम्मत सत्य का तत्त्व तो निहित है ही, इसके अतिरिक्त उसमें अहिंसासमभाव का जैन प्रकृतिसुलभभाव भी निहित है। १६ अकलङ्क आदि जैन दार्शनिकों का यह सुनिश्चित मत है कि किसी एक पक्ष की सिद्धि दूसरे पक्ष की असिद्धि के बिना हो ही नहीं सकती। - ४१४. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-३, पृ.६४२-४४ ४१५. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-३, पृ.६४८ ४१६.प्रमाणमीमांसा, भाषा टिप्पण, पृ.१२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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