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________________ प्रथम अध्याय प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा भारतीय दर्शन में प्रमाणमीमांसा ____ 'प्रमाणमीमांसा' शब्द प्रमाण से सम्बन्धित समस्त चर्चा को अपने में समेट लेता है। प्रमाण का लक्षण,उसके भेद, विषय और फल के साथ प्रामाण्य की चर्चा भी,प्रमाणमीमांसा में गर्भित हो जाती है। 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'मा' धातु से निष्पन्न 'प्रमाण' शब्द प्रमेय पदार्थ को जानने में साधकतम कारण होता है । 'प्रमाकरणं प्रमाणम्', 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' आदि इसके व्युत्पत्तिपरक लक्षण इसकी पुष्टि करते हैं। जानने के अनेक साधन होते हैं, किन्तु साधकतम कारण अर्थात् करण को ही प्रमाण माना जाता है । वह साधकतम कारण अर्थात् प्रमाण क्या है,यह भारतीय दार्शनिकों के मध्य विवाद का विषय रहा है । इसकी संख्या,विषय,फल और प्रामाण्य के सम्बन्ध में भी वाद होते रहे हैं । इसलिए प्रमाणमीमांसा भारतीयदर्शन में गंभीर ऊहापोह का विषय रहा है। ___ तर्कशास्त्र,न्यायशास्त्र और प्रमाणशास्त्र समान अर्थ में प्रचलित हैं। प्रमाणमीमांसा' शब्द भी इन्हीं की व्याख्या करता है । भिन्न-भिन्न मान्यताओं के कारण प्रत्येक भारतीय दर्शन का अपना पृथक् प्रमाणशास्त्र प्रचलित हुआ। पाश्चात्य दर्शन में इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यह माना जाता था कि तर्कशास्त्र तो एक विज्ञान है और उसमें मतभेद के लिए कोई अवकाश नहीं है,परन्तु समकालीन पाश्चात्त्य दर्शन पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि तर्कशास्त्र भी भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।' प्राचीन भारतीय दर्शन में प्रमाण-शास्त्र के लिए आन्वीक्षिकी शब्द का प्रयोग होता रहा है। यह आन्वीक्षिकी विद्या न्यायविद्या या हेतुविद्या के रूप में तो प्रसिद्ध ही है,किन्तु मनुस्मृति में इसका प्रयोग आत्मविद्या के लिए हुआ है । ' सतीशचन्द्र विद्याभूषण के अनुसार आत्म-विद्या ही उत्तरकाल में आन्वीक्षिकी के नाम से पहचानी गई तथा आन्वीक्षिकी ही दर्शन एवं न्याय इन दो शाखाओं में विभक्त हुई । वात्स्यायन ने आन्वीक्षिकी को न्यायविद्या कहकर उसे अध्यात्मविद्या से पृथक् सिद्ध किया है। उनके अनुसार संशयादि पदार्थ न्यायविद्या के पृथक् प्रस्थान हैं, यदि उसमें संशयादि पदार्थ न हों तो वह अध्यात्मविद्या मात्र रह जाएगी। 8. Susan Haack, The Philosophy of Logics, pp. 1-10 २. विद्येभ्यस्त्रयों विद्याद् दण्डनीतिञ्च शाश्वतीम् । ___ आन्वीक्षिकी चात्मविद्यां वार्तारम्भां च लोकतः ।।- मनुस्मृति, ७.४३ 3. Atma-vidyā was at a later stage called Anviksiki, the science of inquiry. – A History of Indian Logic, p. 4 ४. A History of Indian Logic,pp.5-6 ५. इमास्तु चतस्रो विद्याः पृचक्झस्थानाः प्राणभृतामनुग्रहायोपदिश्यन्ते यासां चतुर्थीयम् आन्वीक्षिकी न्यायविद्या । तस्याः पृथक्षस्थानाः संशयादयः पदार्थाः । तेषां पृथग्वचनमन्तरेणाऽध्यात्मविद्यामात्रमियं स्यात् यथोपनिषदः।-न्यायभाष्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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