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________________ अनुमान-प्रमाण २८७ है,क्योंकि उसका कथन व्यर्थ है।४०८ साधन रूप सिद्धि का जो अंग नहीं है यथा असिद्ध विरुद्ध अथवा अनैकान्तिक हेत्वाभास,इनका कथन करना भी धर्मकीर्ति के अनुसार वादी का निग्रहस्थान है।४०९ आदोषोद्भावन प्रतिवादी का निग्रहस्थान है । वादी के द्वारा साधन का प्रयोग किये जाने पर जब प्रतिवादी उत्तरपक्ष को स्वीकार करके वादी के विषय में दोष प्रकट नहीं करता है तब वह अदोषोद्भावन नामक निग्रहस्थान द्वारा पराजित होता है । १° साधन के दोषों की परिगणना करते हुए धर्मकीर्ति ने अनेक दोषों का कथन किया है, यथा न्यूनता,असिद्धि, अनैकान्तिकता,वादी को इष्ट साध्य अर्थ का विपर्यय साधन और अठारह प्रकार के दृष्टान्ताभास । वादी के इन दोषों को जब प्रतिवादी प्रकट नहीं करता है तो वह पराजित समझा जाता है।४११ । जैन दर्शन में अकलङ्क, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र एवं हेमचन्द्र ने निग्रहस्थानों पर विचार किया है तथा वादी के द्वारा स्वपक्षसिद्धि को ही प्रतिवादी के निग्रहस्थान के रूप में प्रतिष्ठित किया है । उन्होंने न्याय एवं बौद्ध दर्शन सम्मत निग्रहस्थानों का निरसन किया है । जैन मान्यता के अनुसार स्वपक्ष सिद्धि ही एक मात्र प्रतिवादी का निग्रह है । दूसरे शब्दों में वादी की स्वपक्षसिद्धि से ही प्रतिवादी का निग्रह हो जाता है । अतः उनके अनुसार असाधनांगवचन एवं अदोषोद्भावन नामक दो निग्रहस्थान मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । १२ ____ असाधनांगवचन का खण्डन करने हेतु प्रभाचन्द्र बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि वादी एवं प्रतिवादी में से कोई एक अपने पक्ष की सिद्धि करता हुआ असाधनांगवचन अथवा अदोषोद्भावन से दूसरे का निग्रह करता है,अथवा स्वपक्ष की सिद्धि न करता हुआ ही वह दूसरे का निग्रह कर देता है ? प्रथमपक्ष में अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि करने से यदि अन्य की पराजय होती है तो दोषोद्भावन करना व्यर्थ है तथा स्वपक्ष को सिद्ध किये बिना ही पर का निग्रह होता है,ऐसा मानें तो असाधनांगवचनादि के प्रकट करने पर भी किसी की जय नहीं होगी,क्योंकि उससे किसी की पक्षसिद्धि नहीं होती। बौद्ध त्रिरूप हेतु का साध्य का गमक मानते हैं। उनके मत में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व ये तीनों साधन के अंग हैं। इनमें से किसी का भी कथनं न होने पर असाधनांगवचन के ४०८. तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्गं, प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि तस्यासाधनांगस्वसाधनवाक्ये उपादानं वादिनो निग्रहस्थानम्, व्यर्थाभिधानात् ।-वादन्याय, पृ.५९ ४०९. साधनस्य सिद्धेर्यन्नांगम् असिद्धो, विरुद्ध अनैकान्तिको वा हेत्वाभासः तस्यापि वचनं वादिनो निग्रहस्थानम्, असमर्थोपादानात् ।-वादन्याय, पृ.६४ ४१०. वादिना साधने प्रयुक्तेऽप्यपगतोत्तरपक्षो यत्र विषये प्रतिवादी यदा न दोषमुभावयति, तदा पराजितो वक्तव्यः । वाद न्याय, पृ.६ ४११. द्रष्टव्य, वादन्याय, पृ.६७ ४१२. स्वपक्षसिद्धेरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः नासाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः ।। - उद्धत, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-३, पृ. ६४०, किन्तु यह पद्य मूलतः कुमारनन्दी के अनुपलब्ध'वादन्याय' से लिया गया प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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