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________________ २८६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा किन्तु यह ज्ञातव्य है कि उन भेदों के प्रतिपादन में बौद्धों का प्रशस्तपाद के निरूपण से साम्य है एवं जैन दार्शनिकों ने बौद्धों का अनुसरण किया है। उत्तरवर्ती ग्रंथों में न्याय-वैशेषिक दार्शनिक भासर्वज्ञ की रचना न्यायसार का भी उपयोग किया है । हेत्वाभासों का निरूपण भासर्वज्ञ ने जितने विस्तार से भेदोपभेद पूर्वक किया है,संभवतः उतना अन्य किसी भारतीय दार्शनिक द्वारा नहीं किया गया। इसलिए जैन दार्शनिकों द्वारा उससे प्रभावित होना स्वाभाविक था। निग्रहस्थान __ भारतीय दर्शन में जय-पराजय की व्यवस्था के लिए निग्रहस्थानों का निरूपण किया गया है। न्यायदर्शन में तत्त्वनिर्णय के लिए वाद तथा तत्त्वसंरक्षण के लिए जल्प एवं वितण्डा को कथा का आवश्यक अंग माना गया है । वाद में स्वपक्ष-स्थापन तथा परपक्षदूषण प्रमाण एवं तर्क पर आधारित होते हैं,जबकि जल्प और वितण्डा में छल,जाति और निग्रहस्थान जैसे असदुत्तरों को भी स्थान दिया गया है । बौद्ध एवं जैनदर्शन में छल,जाति आदि के प्रयोग को अन्याय्य बतलाया गया है । अतः इन दोनों दर्शनों में जल्प एवं वितण्डा का कोई महत्त्व नहीं रह गया है । ये दोनों दर्शन वाद को ही कथा के रूप में स्वीकार करते हैं,नैयायिकों की भांति जल्प एवं वितण्डा को कथा का अंग नहीं मानते हैं। जय-पराजय व्यवस्था के लिए निग्रहस्थानों को बौद्धों ने स्वीकार किया है। न्यायसूत्र में विप्रतिपत्ति एवं अप्रतिप्रत्ति को निग्रहस्थान कहा गया है । ०५ विप्रतिपत्ति का अर्थ है - कुत्सित अथवा विपरीत प्रतिपत्ति होना तथा अप्रतिपत्ति का अर्थ है पक्ष को स्वीकार करके उसका स्थापन नहीं करना तथा प्रतिवादी के द्वारा स्थापित पक्ष का निषेध नहीं करना अथवा प्रतिवादी के द्वारा वादी का पक्ष निषिद्ध करने पर उसका पुनः परिहार नहीं करना। न्यायदर्शन में २२ निग्रहस्थानों का निरूपण है । बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने इन निग्रहस्थानों को निरर्थक सिद्ध कर अपने ग्रंथ वादन्याय में असाधनांगवचन एवं अदोषोद्भावन नामक दो निग्रहस्थानों को प्रतिष्ठित किया है । वे कहते हैं कि असाधनांगवचन एवं अदोषोभावन इन दो के अतिरिक्त अन्य निग्रहस्थान का होना उचित प्रतीत नहीं होता।०६ असाधनांगवचन को वेवादी का निग्रहस्थान तथा अदोषोद्भावन को प्रतिवादी का निग्रहस्थान मानते हैं । बौद्धमत में त्रिरूप लिङ्गसाधन है,उसका कथन करना साधनांगवचन है, किन्तु जब तीन रूपों में से पक्षधर्मत्वादि किसी एक का भी कथन न किया जाय तो वह हेतु असाधनांवचन है जो वादी का निग्रहस्थान है।४०० त्रिरूपसाधन का जो अंग नहीं है ऐसे प्रतिज्ञा,उपनय,निगमन आदि का साधन-वाक्य में कथन करना भी वादी का निग्रहस्थान ४०५. विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम् ।-न्यायसूत्र, १.२.१९ ४०६. असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ||-वादन्याय, पृ. ४ ४०७. साध्यते येन परेषामप्रतीतोऽर्थ इति साधनम्, त्रिरूपहेतुवचनसमुदायः तस्याहं पक्षधर्मादिवचनम्, तस्यैकस्याप्यवच नमसाधनांगवचनम् तदपि वादिनो निग्रहस्थानम् ।-वादन्याय, पृ.५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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