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अनुमान-प्रमाण
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उसे असिद्ध हेत्वाभास कहा है। ३९६ साध्य से विपरीत (विपक्ष) के साथ जिस हेतु का अविनाभाव हो उसे विरुद्ध ३९७ तथा जो हेतु पक्ष और सपक्ष में रहता हुआ विपक्ष में भी रहता हो उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहा है ।३९८ साध्य के सिद्ध हो जाने पर अथवा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से साध्य के बाधित होने पर वे हेतु को अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहते हैं । ३९९ अकिञ्चित्कर नामक हेत्वाभास का प्रतिपादन यद्यपि अकलङ्क की नवीन देन है, तथापि अकलङ्क स्वयं इसके प्रतिपादन में सुदृढ़ नहीं हैं। कभी वे विरुद्ध, असिद्ध और अनैकान्तिक को अकिञ्चित्कर का विस्तार बतलाते हैं ४०° तथा कभी अन्यथानुपपत्ति से रहित त्रिलक्षण को अकिञ्चित्कर कहते हैं । ४०१ महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य का मत है कि अकलङ्क समस्त हेत्वाभासों को सामान्य से अकिञ्चित्कर या असिद्ध संज्ञा देते हैं तथा अकिञ्चित्कर को स्वतन्त्र हेत्वाभास मानने का सुदृढ़ विचार नहीं रखते हैं। ०२ ___ इस प्रकार हेत्वाभासों की संख्या की दृष्टि से बौद्ध एवं जैन दर्शन में कोई मत-भेद नहीं रह जाता है। दोनों दर्शनों में असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकान्तिक भेद मान्य हैं, किन्तु इन हेत्वाभासों की पुष्टि में दिये गये उदाहरण एक दूसरे पर आक्षेप करते हैं । यथा बौद्धों ने असिद्ध हेत्वाभास का उदाहरण देते हुए कहा है - 'वृक्ष चेतन हैं,क्योंकि उनकी समस्त त्वचा को हटा देने पर उनकी मृत्यु हो जाती है' यह जैन दार्शनिकों द्वारा दिया गया हेतु प्रतिवादी बौद्धों के लिए असिद्ध है,क्योंकि वे विज्ञान,इन्द्रिय तथा आयु के निरोध होने को मृत्यु कहते हैं और वह मृत्यु वृक्षों में सम्भव नहीं है।४०३ जैन दार्शनिकों ने वृक्षों को सचेतन माना है, इसलिए उन्होंने बौद्ध मंतव्य को हेत्वाभास में रखा है,यथा - वृक्ष अचेतन हैं,क्योंकि उनमें विज्ञान,इन्द्रिय एवं आयु का निरोध रूप मरण नहीं पाया जाता।' जैन दार्शनिकों ने इसे प्रतिवाद्यसिद्ध अथवा अन्यतरासिद्ध हेत्वाभास कहा है,क्योंकि यह जैनदार्शनिकों को इष्ट नहीं
असिद्ध,विरुद्ध एवं अनैकान्तिक हेत्वाभासों के भी बौद्ध एवं जैन दर्शन में विविध प्रकारनिरूपित हैं तथा उन्हें सोदाहरण समझाया गया है । विस्तारभय से उनका यहां निरूपण नहीं किया जा रहा है,
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३९६. असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः।- परीक्षामुख, ६.२२ ३९७. विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दःकृतकत्वात् -परीक्षामुख, ६.२९ ३९८. विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ।-परीक्षामुख, ६.३० ३९९. सिद्धे प्रत्यक्षबाधिते च साध्ये हेतुरकिंचित्करः ।- परीक्षामुख.६.३४ ४००. विरुद्धासिद्धसन्दिग्धैरकिंचित्करविस्तरैः ।-न्यायविनिश्चय, २.१९७ ४०१. अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये त्रिलक्षणाः।।
अकिञ्चित्कारकान् सर्वांस्तान् वयं संगिरामहे ।।- न्यायविनिश्चय २.२०२ ४०२.(१) अकलङ्कअन्यत्रय, प्रस्तावना, प्र.६३-६४
(२) डा. दरबारी लाल कोठिया ने असिद्ध शब्द का प्रयोग हेत्वाभाससामान्य के लिए मानने का प्रतिषेध किया है।
-जैन तर्कशास्त्र में अनुमानविचार, पृ. २३८ ४०३. चेतनास्तरव इतिसाध्ये सर्वत्वगपहरणे मरणं प्रतिवाद्यसिद्धम्, विज्ञानेन्द्रियायुनिरोधलक्षणस्यमरणस्यानेनाभ्युपगमात्,
तस्य च तरुष्वसंभवात् । न्यायबिन्दु, ३.५९ ४०४. अन्यतरासिद्धो यथा-अचेतनास्तरवो विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणमरणरहितत्वात् ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.५१
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