SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा है।३८८ अनुमान-प्रमाण में जो महत्त्व हेतु का है,वही हेत्वाभास का भी है। हेत्वाभास से होने वाला अनुमान सम्यक् नहीं होता । हेत्वाभास को न्यायदर्शन में गौतम ने षोडश पदार्थों में एक पदार्थ माना है तथा सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम और कालातीत नाम से पांच हेत्वाभासों का प्रतिपादन किया है।८९ वैशेषिक दर्शन में प्रशस्तपाद में चार हेत्वाभासों का कथन किया है-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक (संदिग्ध) एव अनध्यवसित ।३९° बौद्ध दर्शन में शङ्करस्वामी से लेकर मोक्षाकरगुप्त तक तीन प्रकार के हेत्वाभासों का निरूपण है -१. असिद्ध २. विरुद्ध और ३. अनैकान्तिक । २९१ तीन प्रकार के हेत्वाभासों का निराकरण करने के लिए ही बौद्धदार्शनिकों ने हेतु में त्रैरूप्य (पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व) स्वीकार किया है। धर्मकीर्ति ने असिद्ध आदि हेत्वाभासों का न्यायबिन्दु में विस्तृत निरूपण किया है । ३९२ उनके अनुसार हेतु का पक्ष में होना असिद्ध या संदिग्ध होने पर असिद्ध हेत्वाभास होता है । जब हेतु का सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व असिद्ध या संदिग्ध हो तो वह विरुद्ध हेत्वाभास एवं सपक्षसत्त्व तथा विपक्षासत्त्व इन दोनों रूपों में से यदि एक असिद्ध हो और दूसरा संदिग्ध हो अथवा दोनों संदिग्ध हों तो वहां अनैकान्तिक हेत्वाभास होता है। जैन दर्शन में हेतु का अन्यथानुपपन्नत्व रूप एक लक्षण माना गया है,अतः उसके अभाव में एक ही हेत्वाभास होना चाहिए,किन्तु जैन दार्शनिकों ने अन्यथानुपपन्नत्व के अभाव से ही असिद्ध,विरुद्ध एवं अनैकान्तिक हेत्वाभासों को फलित कर लिया है । सिद्धसेन , वादिदेवसूरि आदि ने इन्हीं तीन हेत्वाभासों का निरूपण किया है । ३९३ अकलङ्कने मूलतः एक हेत्वाभास स्वीकार करते हुए भी उसके चार भेद फलित किये हैं। ३९४ चौथा भेद अकिञ्चित्कर हेत्वाभास के रूप में प्रतिपादित है,शेष तीन भेदों में वे असिद्ध,विरुद्ध एवं अनैकान्तिक (संदिग्ध)का ही निरूपण करते हैं । अकलङ्कका अनुसरण कर माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र आदि ने भी ये ही चार प्रकार के हेत्वाभास निरूपित किये हैं। ३९५ माणिक्यनन्दी ने जिस हेतु की पक्ष में सत्ता सिद्ध न हो अथवा जिसका पक्ष में रहना निश्चित न हो ३८८. हेत्वाभासत्वमन्यथानुपपत्तिवैकल्यात् ।-न्यायविनिश्चयविवरण, २.१९६, पृ. २२५ ३८९. सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीता हेत्वाभासाः ।-न्यायसूत्र १.२.४ ३९०. एतेनासिद्धविरुद्धसंदिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वम्।-प्रशस्तपादभाष्य, हेत्वाभासप्रकरण, पृ. १८९ ३९१. न्यायप्रवेश, पृ.३, तर्कभाषा (मोक्षाकर), पृ. २७-८८ ३९२. द्रष्टव्य, न्यायबिन्दु ३.५५-१२० ३९३. (१) असिद्धस्त्वप्रतीतो यो योऽन्यथैवोपपद्यते । विरुद्धो योऽन्यथाप्यत्र युक्तोऽनैकान्तिकः ।।-न्यायावतार, २३ (२) असिद्धविरुद्धानकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.४७ ३९४.(१) तस्य चैकविधत्वात् तदाभासानामप्येकविधत्वमेव प्राप्नोति ।- न्यायविनिश्चयविवरण, २.१९९..२२५ (२) विरुद्धासिद्धसंदिग्धा अकिञ्चित्करविस्तराः।- न्यायविनिश्चय , १.१०१-१०२ ३९५.हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानेकान्तिकाकिंचित्कराः।-परीक्षामख, ६.२१ द्रष्टव्य, प्रमेयकमलेमार्तण्ड, भाग-३ पृ. ५२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy