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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा उपचार से धर्मी को पक्ष मानने ३५८ का खण्डन किया है । ३५९ विद्यानन्द ने अकलङ्क की भांति साध्यधर्म को पक्ष स्वीकार किया है। उनका मत है कि हेतु का अविनाभाव साध्य के साथ है, अतः साध्य धर्म ही अनुमेय या पक्ष है । ३६० माणिक्यनन्दी, धर्मकीर्ति से प्रभावित हैं, अतः उन्होंने व्याप्तिनिश्चय काल में धर्म को साध्य माना है एवं अनुमिति काल में धर्मविशिष्ट धर्मी को साध्य कहा है । धर्मविशिष्ट धर्मी का पर्याय शब्द वे पक्ष को मानते हैं, किन्तु पक्ष का पर्याय साध्य को नहीं । माणिक्यनन्दी का ही अनुसरण वादिदेवसूरि ने किया है । ३६२ हेमचन्द्र अभीष्ट, असिद्ध एवं अबाधित साध्य को ही पक्ष कहते हैं । इस प्रकार जैन दर्शन में असिद्ध, अनिराकृत एवं अभीप्सित साध्य को पक्ष कहा गया है अथवा साध्यविशिष्ट धर्मी को पक्ष माना गया है, जो बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता से कोई विरोध नहीं रखता । , ३६१ ३६३ २७८ परार्थानुमान के समय पक्षवचन अथवा प्रतिज्ञा को अनावश्यक मानने वाले बौद्ध मत की जैनदार्शनिक सिद्धसेन, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने आलोचना की है तथा पक्षनिर्देश की उपादेयता प्रतिपादित की है । सिद्धसेन दिवाकर ने पक्ष-प्रयोग को हेतु के विषय का दीपक बतलाकर उसकी उपादेयता सिद्ध की है। ३६४ सिद्धसेन का कथन है कि जिस प्रकार धनुर्धारी द्वारा बिना लक्ष्यनिर्देश के बाण चलाने पर दर्शक पुरुष उसके लक्ष्यवेध की प्रवीणता को भी दोष एवं अप्रवीणता को भी गुण समझ सकता है, इसी प्रकार बिना पक्षनिर्देश के वादी के अभीष्ट हेतु को भी प्रतिवादी विषय की अस्पष्टता के भ्रान्त होकर उसे विरुद्ध हेतु समझ सकता है, इसलिए अभीष्ट पक्ष का निर्देश करना आवश्यक है। ३६५ माणिक्यनन्दी प्रतिपादित करते हैं कि साध्य के गम्यमान होने पर भी उसका कथन करना आवश्यक है ! साध्यधर्म के आधार रूप पक्ष का यदि कथन नहीं किया जाय तो उसके विषय में कोई सन्देह रह सकता है, अतः उसके निवारणार्थ पक्ष का कथन करना समुचित है। पक्षवचन के प्रयोग ३६६ ३५८. पक्षो धर्मी अवयवे समुदायोपचारात् । - हेतुबिन्दु, पृ. ५२ ३५९. पक्षो धर्मीत्युपचारे तद्धर्मतापि न सिद्धा । - सिद्धिविनिश्चय, ६.२, पृ. ३७३ ३६०. साध्य एव पक्ष इति प्रतिपत्तव्यं तद्धर्मत्वस्यैवाविनाभावित्वनियमादित्युच्यते ।-: - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.१६१, पृ. २९६ ३६१. (१) साध्यं धर्मः क्वचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी । पक्ष इति यावत् । - परीक्षामुख, ३.२१,२२ (२) व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव । परीक्षामुख, ३.२८ ३६२. व्याप्तिग्रहणसमयापेक्षया साध्यं धर्म एव । अन्यथा तदनुपपत्तेः । आनुमानिकप्रतिपत्त्यवसरापेक्षया तु पक्षापरपर्यायस्तद्विशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१८,२० ३६३. सिषाधयिषितमसिद्धमबाध्यं साध्यं पक्षः । - प्रमाणमीमांसा, १.२.१३, पृ. ४५ ३६४. तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोगचरदीपकः । - न्यायावतार, १४ ३६५. अन्यथा वाद्यभिप्रेत हेतु गोचरमोहिनः । प्रत्याय्यस्य भवेद् हेतु विरुद्धारेकितो यथा ॥ धानुष्कगुणसंप्रेक्षिजनस्य परिविध्यतः । धानुष्कस्य विना लक्ष्यनिर्देशन गुणेतरौ ॥-न्यायावतार, १५,१६ ३६६. साध्य धर्माधारसन्देहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम् ! - परीक्षामुख, ३.३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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