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अनुमान-प्रमाण
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वाक्यशेषः। ३५° अर्थात् पक्ष प्रसिद्ध धर्मी होता है जो प्रसिद्ध (साध्य रूप)विशेषण से विशिष्ट होकर स्वयं साध्य के रूप में इष्ट होता है तथा प्रत्यक्षादि से अविरुद्ध होता है । न्यायप्रवेशकार के कथन से इंगित होता है कि वे पक्ष को साध्य धर्म से युक्त मानते हैं तथा साथ ही पक्ष को साध्य के रूप में भी स्वीकार करते हैं।'
धर्मकीर्ति प्रणीत हेतुलक्षण के प्रसंग में धर्मोत्तर ने 'अनुमेय' शब्द की विविध व्याख्याएँ की हैं, तदनुसार वे हेतुलक्षण का निश्चय करते समय धर्मी को अनुमेय,साध्य का ज्ञान करते समय धर्म एवं धर्मी के समुदाय को अनुमेय,तथा व्याप्तिनिश्चयकाल में धर्म को अनुमेय प्रतिपादित करते हैं।३५१ धर्मी शब्द का अर्थ प्राय: 'पक्ष' किया जाता है क्योंकि वह साध्य रूप धर्म से विशिष्ट होता है। परार्थानुमान के प्रसंग में धर्मोत्तर के अनुसार धर्मकीर्ति ने पक्ष एवं साध्य में कोई अन्तर नहीं किया है।३५२ धर्मकीर्ति पक्ष के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहते हैं- ‘स्वरूपेणैव स्वयमिष्टोऽनिराकृतः इति।३५३ पक्ष के इस लक्षण द्वारा धर्मकीर्ति ने पक्ष की पांच विशेषताओं को प्रकाशित किया है१वह सिद्ध नहीं रहता २.साधन नहीं होता ३.स्वयं वादी द्वारा सिद्ध करना अभीष्ट होता है ४.शब्दों से कभी उक्त होता है एवं कभी अनुक्त तथा ५.प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अनिराकृत रहता है ।३५४ इन पांच विशेषताओं से युक्त साध्य को ही धर्मकीर्ति ने पक्ष कहा है, अन्यथा होने पर वे उसे पक्षाभास मानते हैं । यद्यपि धर्मकीर्ति पक्ष को अनुमान का अवयव नहीं मानते हैं तथापि साध्य एवं असाध्य के विवेक के लिए उन्होंने पक्षलक्षण का निरूपण किया है । ३५५
जैन दार्शनिक सिद्धसेन के अनुसार साध्य का अभ्युपगम ही पक्ष है । वह पक्ष प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से अनिराकृत होता है एवं हेतु के विषय का प्रकाशक होता है ।३५६ सिद्धसेन का यह पक्षलक्षण जैन दार्शनिक प्रमाण-मीमांसा की दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत होता है,क्योंकि इसमें किसी धर्मी का निर्देश नहीं किया गया है। धर्मी में हेतु का होना जैन दार्शनिक आवश्यक नहीं मानते हैं। अकलङ्कने साध्य को पक्ष कहा है । परार्थानुमान के अवयवों की अकलङ्क ने कहीं विशद चर्चा नहीं की है,उसी क्रम में वे साध्य एवं पक्ष में भेद का निर्देश भी नहीं करते हैं। साध्य का लक्षण देते हुए अकलङ्क ने कहा है'जो शक्य (अबाधित,अनिराकृत).अभिप्रेत एवं अप्रसिद्ध होता है तथा साधन का विषय बनता है वह साध्य है।५७ अकलङ्कने धर्मकीर्ति की भांति धर्मी को पक्ष नहीं माना है तथा धर्मकीर्ति के द्वारा ३५०. न्यायप्रवेश, पृ.१ ३५१. अत्र हेतुलक्षणे निश्चेतव्ये धर्मी अनुमेयः । अन्यत्र, तु साध्यप्रतिपत्तिकाले समुदायोऽनुमेयः । व्याप्तिनिश्चयकाले तु
धर्मोऽनुमेय इति ।-न्यायविन्दुटीका, २.६, पृ.१११ ३५२. पक्षस्य साध्यत्वान् नापरमस्ति रूपम्।-न्यायबिन्दुटीका, ३.३९, पृ. २३७ ३५३. न्यायबिन्दु, ३.३८ ३५४. द्रष्टव्य, न्यायबिन्दुटीका, ३.५४, पृ. २५९ ३५५. साध्यासाध्यविप्रतिपत्तिनिराकरणाच पक्षलक्षणमुक्तम्।- न्यायबन्दुटीका, ३.३८, पृ.२३६ ३५६. साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाद्यनिराकृतः।-न्यायावतार १४ ३५७.साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध ततोऽपरम ।
साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ।।-न्यायविनिश्चय,१७२-७३
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