________________
२७६
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदष्टि से समीक्षा
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन दार्शनिकों ने प्रतिपाद्य पुरुष के अनुसार अनुमान के अवयवों को अंगीकार किया है, ३४४ तथापि सर्वाधिक प्रसिद्धि पक्ष एवं हेतु इन दो अवयवों को मानने की हुई।
जैन दार्शनिकों ने परार्थानुमान के समय प्रतिज्ञा का कथन करना या पक्ष का निर्देश करना आवश्यक माना है, किन्तु धर्मकीर्ति आदि दार्शनिक इसे आवश्यक नहीं मानते हैं। धर्मकीर्ति आदि दार्शनिकों के मत का जैन दार्शनिकों ने निरसन किया है,अत: अब पक्ष-वचन पर विचार किया जा रहा है।
पक्ष-वचन-विमर्श पक्ष या पक्षवचन शब्द का अर्थ यहां प्रतिज्ञा है । गौतम, वात्स्यायन आदि न्यायदार्शनिकों ने पंचावयव में प्रतिज्ञा शब्द का प्रयोग किया है । ३४५ उसके स्थान पर ही बौद्ध जैन एवं उत्तरवर्ती न्यायदर्शन में पक्षवचन शब्द का प्रयोग हुआ है।३४६
बौद्ध दार्शनिक हेतु का पक्ष में रहना (पक्षधर्मता) अनिवार्य मानते हैं,३४७ किन्तु परार्थानुमान के समय पक्ष का कथन करना आवश्यक नहीं मानते । धर्मकीर्ति कहते हैं कि साधर्म्य एवं वैधर्म्य दोनों प्रकार के अनुमानों में पक्ष का निर्देश करना आवश्यक नहीं है।३४८ जैन दार्शनिक इस मत के ठीक विपरीत प्रतिपादन करते हैं। वे हेतु का पक्ष में रहना आवश्यक नहीं मानते हैं, किन्तु परार्थानुमान के समय पक्ष का कथन करना आवश्यक मानते हैं।३४९ बौद्ध दार्शनिक परार्थानुमान के समय पक्ष का निर्देश करना संभवतःइसलिए आवश्यक नहीं मानते हैं,क्योंकि वे हेतु के द्वारा ही पक्षधर्मता का ग्रहण कर लेते हैं। बौद्धमत में वही हेतु सद्धेतु है जिसमें पक्षधर्मत्व,सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूप त्रैरूप्य हो। जैन दार्शनिकों ने हेतुलक्षण में पक्षधर्मता को स्वीकार नहीं किया है । इसलिए वे परार्थानुमान के समय प्रतिज्ञा के रूप में उसका कथन करना आवश्यक मानते हैं।
पक्षवचन के प्रयोग की आवश्यकता या अनावश्यकता पर विचार करने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि 'पक्ष'शब्द का प्रयोग बौद्ध एवं जैनदार्शनिकों ने किन-किन अर्थों में किया है।
दिङ्नाग के शिष्य शङ्करस्वामी की रचना न्यायप्रवेश में पक्ष का स्वरूप इस प्रकार दिया गया है 'पक्षः प्रसिद्धो धर्मी प्रसिद्धविशेषेण विशिष्टतया स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः । प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध इति
३४४. प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ।- कुमारनन्दी, उद्धत, प्रमाणपरीक्षा, पृ.७२ ३४५. प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः।-न्यायसूत्र, १.१.३२ ३४६.(१) पक्षः प्रसिद्धो धर्मी।-न्यायप्रवेश, पृ.१
(२) साध्याभ्युपगमः स पक्षः।-न्यायावतार, १४ ३४७. अनुमेये सत्त्वमेव निश्चितम् - न्यायबिन्दु, २.५ ३४८. योरप्यनयोः प्रयोगयो वश्यं पक्षनिर्देशः।-न्यायबिन्दु, ३.३४ ३४९. पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्यः ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org