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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
दार्शनिक न्यायदर्शन में प्रतिपादित प्रतिज्ञा, उपनय एवं निगमन का खण्डन करते हैं। उनके मत में पंचावयव परम्परा अंगीकृत नहीं है । स्थूल रूप से बौद्ध दर्शन में परार्थानुमान के अवयवों के सम्बन्ध में चार प्रकार के उल्लेख मिलते हैं१. तीन अवयव - न्यायप्रवेश में पक्ष,हेतु एवं दृष्टान्त को परार्थानुमान का अवयव प्रतिपादित किया गया है। न्यायप्रवेशकार का मत है कि पक्ष,हेतु एवं दृष्टान्त वचनों से प्राश्निकों को अप्रतीत अर्थ का ज्ञान कराया जाता है ।३२६ २.दो अवयव- (१) धर्मकीर्ति आदि दार्शनिकों ने न्यायप्रवेश में प्रतिपादित तीन अवयवों में से पक्ष को निकालकर शेष दो अवयवों को उपादेय माना है।३२७ धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित आदि ने पक्ष को अथवा प्रतिज्ञा को अनुमान का अवयव मानने का विस्तार से खण्डन किया है । धर्मकीर्ति कहते हैं कि साधर्म्य एवं वैधर्म्य दोनों प्रकार के अनुमानों में पक्ष का निर्देश करना आवश्यक नहीं है ।३२८ (२) मोक्षाकरगुप्त ने तर्कभाषा में व्याप्ति एवं पक्षधर्मता को अनुमान का अंग कहा है।३२९ मोक्षाकरगुप्त प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण उपनय एवं निगमन इन पांचों अवयवों का खण्डन कर व्याप्ति एवं पक्षधर्मता को परार्थानुमान के आवश्यक अवयव मानते हैं ।३३° नव्यन्याय सरणि में तथा केशवमिश्र की तर्कभाषा में भी व्याप्ति एवं पक्षधर्मता को ही अनुमान का अंग माना गया है।३३१ ३. एकावयव - धर्मकीर्ति विशिष्ट व्युत्पन्न अधिकारी के लिए केवल एक ही अवयव ‘हेतु' को आवश्यक मानते हैं, उसके लिए वे दृष्टान्त वचन की भी आवश्यकता नहीं मानते ।३३२ ।।
जैन दार्शनिकों में पक्ष एवं हेतु को अनुमान का अवयव मानने की धारणा बलवती रही है। सिद्धसेन ,माणिक्यनन्दी,प्रभाचन्द्र,देवसूरि, हेमचन्द्र आदि समस्त जैन दार्शनिक इसका प्रतिपादन एवं समर्थन करते हैं । जैन दर्शन के सम्पूर्ण वाङ्मय पर दृष्टिपात किया जाय तो इसमें प्रतिपाद्य पुरुष के अनुसार अवयवों की कल्पना की गयी है । प्रमुख रूप से अवयवों के सम्बन्ध में निम्न उल्लेख मिलते
हैं।
१- श्वेताम्बर जैनाचार्य भद्रबाहु ने दशवकालिकसूत्र की नियुक्ति में दो,पांच एवं दश अवयवों का ३२६. पक्षहेतुदृष्टान्तवचनैहि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यत इति ।- न्यायप्रवेश, पृ. १ ३२७. धर्मकीर्ति ने उदाहरण एवं उपनय इन दो अवयवों को स्वीकार किया है । -भारतीय दर्शन में अनुमान, पृ. २९१ ३२८. द्वयोरप्यनयोः प्रयोगयो वश्यं पक्षनिर्देशः ।-न्यायबिन्दु, ३.३४ ३२९. व्याप्तिपक्षधर्मतासंज्ञकं यवयवमेव साधनवाक्यं सौगतानाम्, ।-तर्कभाषा (मोक्षाकर), पृ.१४ ३३०. तर्कभाषा (मोक्षाकर), पृ.१४ ३३१. अनुमानस्य द्वे अंगे व्याप्तिः पक्षधर्मता च ।- केशवमित्र, तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण। ' ३३२.(१) तद्भावहेतुभावो हि दृष्टान्ते तदवेदिनः।
ख्याप्येते, विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः -प्रमाणवार्तिक , ३.२७ (२) विरूपो हेतुरुक्तः । तावता चार्थप्रतीतिरिति न पृथग्दृष्टान्तो नाम साधनावयवः कश्चित् तेन नास्य लक्षणं पृथक्
उच्यते गतार्थत्वात् ।-न्यायबिन्दु, ३.१२१
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