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________________ अनुमान-प्रमाण २७३ इस प्रकार परार्थानुमान के स्वरूप को लेकर जैन एवं बौद्ध दर्शनों में कोई विवाद नहीं है । दोनों ही उसे वचनात्मक मानते हैं । उनका प्रथम विवाद हेतु के रूप्य को लेकर है,जिसकी चर्चा हेतुलक्षण में की जा चुकी है। दूसरा विवाद पक्ष-वचन को लेकर है । बौद्ध दार्शनिक परार्थानुमान में पक्षवचन का प्रतिषेध करते हैं,जबकि जैन दार्शनिक हेतु के साथ पक्ष का कथन करना भी आवश्यक मानते हैं। परार्थानुमान के भेदः बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने प्रयोग भेद से परार्थानुमान के दो प्रकार बताए हैं। १. साधर्म्यवत् एवं २.वैधर्म्यवत् ।१८ साधर्म्यवत् में दृष्टान्त-धर्मी एवं साध्यधर्मी में हेतु के द्वारा सादृश्य कहा जाता है तथा वैधर्म्यवत् में दृष्टान्तधर्मी एवं साध्यधर्मी में हेतु के द्वारा वैसादृश्य का कथन किया जाता है । जिस परार्थानुमान में हेतु वाक्य का साधर्म्य कहा जाता है वह साधर्म्यवत् होता है तथा जिसमें वैधर्म्य कहा जाता है वह वैधर्म्यवत होता है। ये दोनों प्रकार त्रिरूपलिङ्गका आख्यान करते हैं ।अतः इनमें अर्थतः कोई भेद नहीं है ।३२° प्रयोग की दृष्टि से ही भेद है। न्यायदर्शन में प्रयुक्त अन्वय एवं व्यतिरेक प्रयोग यहां क्रमशः साधर्म्य एवं वैधर्म्य से साम्य रखते हैं। जैन दार्शनिक हेमचन्द्र ने भी परार्थानुमान के इसी प्रकार दो भेद किये हैं-(१) तथोपपत्ति एवं (२) अन्यथानुपपत्ति ।३२१ हेमचन्द्र के पूर्व सिद्धसेन वादिदेवसरि आदि के ग्रंथों में तथोपपत्ति एवं अन्यथानुपपत्ति के रूप में द्विविध हेतु प्रयोग निरूपित किये गये हैं,२२२ उन्हीं हेतु प्रयोगों को हेमचन्द्राचार्य ने परार्थानुमान के भेदों के रूप में प्रस्तुत किया है । तथोपपत्ति का अर्थ है,साध्य के होने पर ही हेतु का होना एवं अन्यथानुपपत्ति का अर्थ है साध्य के अभाव में हेतु का अभाव होना।३२३ तथोपपत्ति एवं अन्यथानुपपत्ति के तात्पर्य में कोई भेद नहीं है, दोनों के द्वारा ही साध्य के साथ अविनाभाव प्रकट किया जाता है।३२४ अतः दोनों में से एक का ही प्रयोग उपादेय है,क्योंकि एक के प्रयोग से ही साध्य का ज्ञान हो जाता है ।३२५ परार्थानुमान के अवयव . बौद्ध दर्शन में परार्थानुमान के अवयवों पर विचार करने के अनन्तर विदित होता है कि बौद्ध ३१८. तद् दिविषम् । प्रयोगभेदात् । साधर्म्यवद् वैधर्म्यवच्चेति।-न्यायविन्दु. ३.३,४,५ ३१९. दृष्टान्तधर्मिणा सह साध्यधर्मिणः सादृश्य हेतुकृतं साधर्म्यमुच्यते । असादृश्यं च हेतुकृतं वैधर्म्यमुच्यते ।- धर्मोत्तर, न्यायविन्दुटीका, ३.५, पृ.१९० ३२०.(१) नानयोरर्थतः कश्चिद् भेदः।-न्यायबिन्दु, ३.६ (२) दाम्यामपि त्रिरूपं लिङ्गप्रकाश्यत एव । -न्यायविन्दुटीका, ३.६, पृ. १९२ ३२१. तद् देवा । तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभेदात् ।-प्रमाणमीमांसा, २.१.३,४ ३२२.(१)हेतोस्तथोपपत्या वा स्यात्प्रयोगोऽन्यचापि वा। दिविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति न्यायावतार,१७ (२) हेतुप्रयोगस्तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिम्यां द्विप्रकारः।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.२९ ३२३. सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्ति; असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.३० ३२४. नानयोस्तात्पर्य भेदः ।-प्रमाणमीमांसा, २.१.५ ३२५. अत एव नोभयोःप्रयोगः ।-प्रमाणमीमांसा, २.१.६ - Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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