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________________ २७२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा दोनों दर्शन प्रमाण को ज्ञानात्मक स्वीकार करते हैं, अतः इनके द्वारा अनुमान को वचनात्मक मानना संगत प्रतीत नहीं होता है । इस समस्या का समाधान बौद्ध दार्शनिकों ने कारण पर कार्य का उपचार मानकर किया है ।३०९ धर्मोत्तर का कथन है कि त्रिरूपलिङ्ग का कथन करने से स्मृति उत्पन्न होती है, स्मृति से अनुमान होता है इसलिए त्रिरूपलिङ्ग का वचन अनुमान रूप कार्य की उत्पत्ति में परम्परा से कारण है। त्रिरूपलिङ्ग वचन रूप कारण पर कार्य का उपचार या आरोप करके बौद्ध दार्शनिक लिङ्गवचन को भी अनुमान प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं।३१° जैनदार्शनिकों ने भी यही समाधान अपनाया है। वादिदेवसरि ने उपचार से ही परार्थानुमान को पक्षहेतुवचनात्मक कहा है।३११ माणिक्यनन्दी एवं हेमचन्द्र ने पक्ष एवं हेतुवचन को उपचार से कारण पर कार्य का आरोप मानकर परार्थानुमान स्वीकार तो किया है।१२ किन्तु वे उसे ज्ञानात्मक रूप में भी प्रतिपादित करने का प्रयास करते हैं । माणिक्यनन्दी कहते हैं कि स्वार्थानुमान के विषयभूत अर्थ का परामर्श करने वाले वचनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है,वह परार्थानुमान है ।३१३ हेमचन्द्र ने भी साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव रखने वाले साधन के कथन से उत्पन्न ज्ञान को परार्थानुमान कहा है।३१४ इस प्रकार ये दोनों दार्शनिक परार्थानुमान को ज्ञानात्मक रूप में प्रतिपादित कर जैन प्रमाण-लक्षण को अव्याप्ति दोष से बचा लेते हैं। आत्यन्तिक रूप से ये भी पक्षहेतुवचन को परार्थानुमान कहने का निषेध नहीं करते हैं। पक्ष हेतुवाक्य को भी वे परार्थानुमान का जनक होने के कारण अन्य दार्शनिकों की भांति उपचार से प्रमाण मानते हैं । वादिदेवसूरिने परार्थानुमान को श्रोता के स्वार्थानुमान का कारण माना है । उन्होंने प्रतिपादित किया है कि अनुमानवाक्य का प्रयोग करने पर श्रोता को जो साध्य का ज्ञान होता है वह स्वार्थानुमान से अर्थात् व्याप्तियुक्त हेतु से ही होता है। वक्ता के द्वारा अनुमान वाक्य 'पक्ष-हेतुवचन' का जो प्रयोग किया जाता है वह श्रोता के स्वार्थानुमान का कारण बनता है इसलिए वह परार्थानुमान माना गया है।३१५डा. दरबारी लाल कोठिया ने देवसूरि के स्थापन से सहमति प्रकट की है,३१६ जो उचित है। शान्तरक्षित ने भी तत्वसंग्रह में परार्थानुमान को श्रोता की अपेक्षा से प्रमाण माना है, वक्ता की अपेक्षा से नहीं।३१७ ३०९. कारणे कार्योपचारात् ।-न्यायबिन्दु, ३.२ ।। ३१०. त्रिरूपलिङ्गाभिधानात् त्रिरूपलिस्मृतिरुत्पद्यते । स्मृतेश्चानुमानम्। तस्मात् अनुमानस्य परम्परया विरूपलिभाभिधानं कारणं । तस्मिन् कारणे वचने कार्यस्य अनुमानस्योपचारः समारोपः क्रियते । ततः समारोपात् कारणं वचनं अनुमानशब्देनोच्यते ।-न्यायविन्दुटीका ३.२, पृ. १८७ ३११. द्रष्टव्य, उपर्युक्त पादटिप्पण,३०८ ३१२(१) तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् । परीक्षामुख, ३.५२ (२) वचनमुपचारात् ।-प्रमाणमीमांसा, २.१.२ ३१३. परावं तु तदर्थपरामर्शिवचनाजातम् ।- परीक्षामुख, ३.५१ ३१४. यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्धम्।-प्रमाणमीमांसा, २.१.१ ३१५. स्थादादरलाकर, ३.२३, पृ.५४८-४९ ३१६. जैन तर्कशास्त्र में अनुमानविचार, पृ.१२४ ३१७. यत्परार्थानुमानत्वमुक्तं तच्छ्रोत्रपेक्षया ।- तत्त्वसंग्रह, १४७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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