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________________ अनुमान-प्रमाण २७१ इसलिए परार्थानुमान में त्रिरूपलिङ्ग का ही कथन स्वीकृत है । यही कारण है कि धर्मकीर्ति ने न्यायबिन्दु में त्रिरूपलिङ्ग का आख्यान करने को परार्थानुमान कहा है।३०२ शान्तरक्षित एवं कमलशील ने भी त्रिरूपलिङ्ग के प्रकाशक वचन को परार्थानुमान कहकर यही मत प्रकट किया है ।३०३ एक रूप अथवा द्विरूप से युक्त हेतु का कथन करने परवे परार्थानुमान को शक्य नहीं मानते,क्योंकि तब हेतु हेत्वाभास होता है।३०४ __ जैन दार्शनिक अनुमान में त्रिरूपलिङ्गगता का होना आवश्यक नहीं मानते हैं, इसलिए वे त्रिरूपलिङ्गगता के आधार पर परार्थानुमान का स्वरूप प्रकट नहीं करते हैं । उनके अनुसार हेतु का लक्षण साध्याविनाभाविता है । इसलिए वे साध्याविनाभावी हेतु के प्रतिपादक वचन को परार्थानुमान कहते हैं । सिद्धसेन ने साध्याविनाभावी हेतु के प्रतिपादक वचन को ही परार्थानुमान कहा है, किन्तु साथ ही वे उसे पक्षादिवचनात्मक भी प्रतिपादित करते हैं । २०५ सिद्धसेन के अनुसार स्वनिश्चय के समान अन्य व्यक्तियों को निश्चय कराना परार्थ प्रमाण है ।३०६ वे केवल अनुमान को परार्थ नहीं मानते हैं,अपितु उसके समान प्रत्यक्ष को भी परार्थ प्रतिपादित करते हैं । उनके मत में अनुमानवाक्य का कथन करके जिस प्रकार अन्य पुरुष को हेतु द्वारा साध्य का ज्ञान कराया जा सकता है उसी प्रकार स्वदृष्ट या निर्णीत वस्तु का कथन करके भी अन्य को उसका प्रत्यक्ष कराया जा सकता है। इसलिए वे प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों को परार्थ भी मानते हैं । २०७ जैन दार्शनिकों ने परार्थानुमान के लिए प्रतिज्ञा (पक्ष) एवं हेतु इन दो अवयवों का कथन करना आवश्यक माना है, इसलिए सिद्धसेन ने परार्थानुमान को पक्षादिवचनात्मक भी कहा है। वादिदेवसूरि ने भी सिद्धसेन का अनुकरण करते हुए पक्ष एवं हेतु के वचन को परार्थानुमान माना है । २०८ बौद्ध दार्शनिक परार्थानुमान में पक्षवचन आवश्यक नहीं मानते हैं, इसलिए उन्होंने त्रिरूपलिङ्ग के वचन को ही परार्थानुमान प्रतिपादित किया है। यह स्पष्ट है कि परार्थानुमान को बौद्ध एवं जैन दोनों दर्शन वचनात्मक प्रतिपादित करते हैं। प्रश्न होता है कि परार्थानुमान वचनात्मक या शब्दात्मक होते हुए भी प्रमाण क्यों माना गया है? ये ३०२. त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थमनुमानम् ।- न्यायबिन्दु, ३.१ ३०३.(१) त्रिरूपलिङ्गवदनं परार्थं पुनरुच्यते ।-तत्वसङ्ग्रह, १३६२ (२) यथोक्तत्रिरूपलिङ्गप्रकाशकवचनात्मकं द्रष्टव्यम् ।- तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, पृ. ४९५ ३०४. एकैकद्विद्विरूपोऽथों लिङ्गाभासस्ततो मतः ।- तत्त्वसङ्ग्रह, १३६२ ३०५. साध्याविनाभुवो हेतोर्वचो यत्प्रतिपादकम् । परार्थमनुमानं तत् पक्षादिवचनात्मकम्॥-न्यायावतार, १३ ३०६. स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः । परार्थ मानमाख्यातं, वाक्यं तदुपचारतः।-न्यायावतार , १० ३०७. प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् । परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं योरपि ।-न्यायावतार, ११ ३०८. पक्षहेतुवचनात्मकं परार्धमनुमानमुपचारात् । -प्रमाणनयतत्त्वालोक ,३.२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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