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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
साध्य के साथ व्याप्ति होती है । तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति का अकलङ्क एवं विद्यानन्द ने प्रतिषेध नहीं किया है, किन्तु वे उन्हें पर्याप्त नहीं मानते हैं । इसलिए विद्यानन्द ने योग्यता सम्बन्ध से हेतु एवं साध्य में व्याप्ति स्वीकार की है । प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को अपर्याप्त ही नहीं माना, अपितु उनके द्वारा व्याप्ति स्वीकार करने का खण्डन भी किया है । इन दार्शनिकों का मन्तव्य है कि तादात्म्य के कारण जिस प्रकार शिंशपा से वृक्ष का ज्ञान होता है उसी प्रकार वृक्ष से शिंशपा का ज्ञान होना चाहिए,क्योंकि तादात्म्य में साध्य व साधन का भेद नही किया जा सकता । तदुत्पत्ति द्वारा भी व्याप्ति का होना वे खण्डित करते हैं,क्योंकि अग्नि से केवल धूम ही उत्पन्न नहीं होता,श्यामत्व आदि भी उत्पन्न होते हैं ,अतः उनसे भी अग्नि की व्याप्ति होकर साध्य का ज्ञान होना चाहिए, किन्तु नहीं होता है। दूसरी बात वे यह कहते हैं कि अग्निसामान्य एवं धूम सामान्य में कार्यकारण भाव नहीं होता है, किन्तु अग्निविशेष एवं धूमविशेष में ही कार्यकारण भाव होता है। धूम एवं अग्नि के कार्यकारण भाव का ज्ञान महानस में होता है,पर्वत में नहीं । इसलिए महानस के कार्यकारणभाव या तदुत्पत्ति ज्ञान से पर्वत की अग्नि को सिद्ध नहीं किया जा सकता । जैन दार्शनिकों ने इसलिए साध्य एवं साधन में योग्यता सम्बन्ध से व्याप्ति स्वीकार की है तथा उसे सहभाव एवं क्रमभाव के रूप में विभक्त कर साध्य के गमक समस्त हेतुओं को समाहित कर लिया है,जो उनकी व्यापक एवं लौकिक व्यवहार की दृष्टि को स्पष्ट करता है ।
न्यायदर्शन में स्वाभाविक सम्बन्ध रूप व्याप्ति का ग्रहण भूयः सहचार दर्शन से सामान्यलक्षण प्रत्यासत्ति के द्वारा किया जाता है, किन्तु भूयःसहचार दर्शन से धूम एवं अग्नि के कार्यकारण सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता । जबकि तर्कप्रमाण से उनके पारस्परिक अविनाभाव का ग्रहण स्वतः हो जाता है।
परार्थानुमान परार्थानुमान का स्वरूप __स्वार्थानुमाता जब प्रतिज्ञा,हेतु आदि का कथन करके अन्य पुरुष को साध्य का ज्ञान कराता है, तो उसे परार्थानुमान कहा जाता है । पर के लिए प्रयुक्त होने से यह परार्थ अनुमान है । २९९ प्रमाता हेतु द्वारा जब साध्य का ज्ञान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा गया है तथा वही प्रमाता साध्य का ज्ञान करने के अनन्तर किसी अन्य पुरुष को हेतु आदि का कथन करके साध्य का ज्ञान कराता है तो वह परार्थानुमान कहलाता है । परार्थानुमान का यह स्वरूप बौद्ध एवं जैन,दोनों दर्शनों को मान्य है। बौद्ध दार्शनिक दिनाग ने स्वदृष्ट अर्थ के प्रकाशन को परार्थानुमान कहकर यही तात्पर्य प्रकट किया है।३०° स्वदृष्ट अर्थ का तात्पर्य यहाँ पर त्रिरूपलिङ्ग से ज्ञात अनुमेय अर्थ है । त्रिरूपलिङ्ग का कथन करके स्वदृष्ट अर्थ का प्रकाशन करना परार्थानुमान है,ऐसा जिनेन्द्रबुद्धि की विशालामलवती टीका से स्पष्ट होता है ।२०१ बौद्ध दर्शन में अनुमान के लिए त्रिरूपलिङ्ग का होना आवश्यक माना गया है, २९९. परस्मायिदं परार्थम् ।-न्यायबिन्दुटीका ३.१, पृ. १८६ ।। ३००. परार्थानुमानं तु स्वदृष्टार्थप्रकाशनम् ।- द्वादशारनयचक्र (ज.)- भाग-१, भोट परिशिष्ट, पृ. १२५ ३०१. स्वदृष्टश्चासावर्थश्चेति स्वदृष्टार्थः त्रिरूपो हेतुः स येन वचनेन प्रकाश्यते तत् परार्थमनुमानम् ।-विशालामलवती,
उद्धृत, द्वादशारनयचक्र (ज) भाग-१, भोट परिशिष्ट, पृ.१२५
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