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________________ २६६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा पर भी श्यामत्व आदि धूम के धर्मस्तोम का अग्नि से व्यभिचार आता है। तादात्म्य से अविनाभाव सम्पन्न नहीं होता इसका निरूपण करते हुए वादिदेवसूरि कहते हैं कि शिंशपा होना ही वृक्ष स्वरूप नहीं है और वृक्ष होना ही शिंशपा स्वरूप नहीं है,क्योंकि खदिर,गूलर आदि में भी समानरूप से वृक्षत्व विद्यमान है ।२९१ शिंशपा एवं वृक्ष में एकान्त रूप से अभेद अर्थात् तादात्म्य का अभाव है। यदि खदिर,उदुम्बर आदि में समान रूप से रहने वाला ही वृक्ष है, शिशपा होना ही नहीं, तब तो शिंशपा एवं वृक्ष की एकता नहीं कही जा सकती। क्योंकि इनमें स्वभाव-भेद रूप भेदलक्षण विद्यमान है। ... वादिदेवसूरि ने बौद्ध दार्शनिक प्रज्ञाकर गुप्त की ओर से पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है-जिस प्रकार शिंशपा वृक्ष स्वरूप है, उसी प्रकार वृक्ष भी शिंशपास्वरूप ही है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि तादात्म्य उभयगत नहीं होता है । जिसका जिसमें तादात्म्य होता है उसका उससे विभाजन नहीं होता । वृक्ष तो शिशपा के बिना भी पलाशादि रूप में विभक्त है, किन्तु शिशपा वृक्ष के बिना नहीं है,शिंशपा वृक्ष से अविभक्त होकर ही वृक्ष स्वरूप का गमक होता है। प्रज्ञाकर की इस आशंका का देवसूरि ने समाधान करते हुए कहा है कि वृक्ष शिंशपा से विभक्त रह सकता है अत: वह विभागवान् है एवं शिशपा वृक्ष से अविभक्त रहती है अतः वह अविभागवती है । इस प्रकार विभागवत्त्व एवं अविभागवत्त्व के विरोधी होने से दोनों में भेद बना ही रहता है. तादात्म्य नहीं हो पाता । तदुत्पत्ति के सम्बन्ध में यदि बौद्ध कहें कि वह्नि के द्वारा धूम ही उत्पन्न किया जाता है, धूम के श्यामत्व आदि धर्म नहीं, तो उनका यह कथन भी अयुक्त है। क्योंकि उनके मत में वस्तु अविभागी होती है । अतः धूम के साथ श्यामत्व आदि की उत्पत्ति मानना चाहिए,जो अविनाभाव में बाधक है । इससे यह सिद्ध होता है कि जहां तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति है वहां अविनाभाव ही सिद्ध नहीं है ।२९२ द्वितीय पक्ष “जहां अविनाभाव होता है वहां तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति होते हैं अत: अविनाभाव के सिद्ध होने पर तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को साध्य के गमक अंग मानना चाहिए", भी उचित नहीं है, क्योंकि तब तो अविनाभाव को ही साध्य का गमक मानना उचित है तथा तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति की कल्पना निष्पयोजन है । स्वभाव स्वभाव (तदात्म) होकर एवं कार्य,कार्य (तदुत्पन्न) होकर अपने साध्य का ज्ञान नहीं कराते,किन्तु उनका अविनाभावित्व ही साध्य का ज्ञान कराता है । २९३ यदि तादात्म्य को साध्य का गमक अंग मानना इष्ट है तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि निरंशवस्तुवादी बौद्धों के यहां साध्य एवं साधन में तादात्म्य होने पर किसी भी प्रकार उनमें भेद घटित २९१. न च शिंशपात्वमेव वृक्षत्वात्मकं न वृक्षत्वं शिशपात्वात्मकं खदिरोदुम्बरादिसाधारणत्वावृक्षस्येति वाच्यम्। -स्याद्वादरत्नाकर पृ.५३३ २९२. स्याद्वादरलाकर, पृ.५३३ २९३. स्याद्वादरत्नाकर,पृ.५३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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