________________
अनुमान-प्रमाण
२६५
तदुत्पत्ति में भी अविनाभाव नियत नहीं है,क्योंकि अग्नि से उत्पन्न धूम के गुण श्यामत्व आदि में अविनाभाव उपलब्ध नहीं होता है । इसी प्रकार अग्निसामान्य एवं धूमसामान्य में कार्यकारण भाव नहीं होता,किन्तु अग्निविशेष एवं धूमविशेष में ही कार्यकारण भाव होता है, जो रसोईघर आदि में जाना जाता है । परन्तु इन अग्निविशेष एवं धूमविशेष में गम्यगमक भाव नहीं होता । पर्वत पर पाये जाने वाले अग्निविशेष एवं धूमविशेष में गम्य-गमक भाव होता है,किन्तु उनमें कार्यकारणभाव अज्ञात रहता है। पर्वतस्थ अग्नि एवं धूम में कार्यकारण भाव जाने बिना उनमें अविनाभाव का ग्रहण नहीं किया जा सकता । अगृहीत अविनाभाव अनुमान का अंग नहीं है। अनुमान-प्रयोग काल में कार्यकारण में अविनाभाव का ग्रहण मानते हैं,तो हेतु की प्रतिपत्ति के समय ही साध्य की प्रतिपत्ति हो जानी चाहिए,अत: तब अनुमान व्यर्थ सिद्ध होता है ।२८९ ।।
प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ के पञ्चक से अविनाभाव की प्रतिपत्ति मानना भी असाम्प्रत है,क्योंकि बौद्धमत में प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है,अतः उससे व्याप्ति ग्रहण करना संभव नहीं है । अनुपलम्भ अर्थान्तर की उपलब्धि के स्वभाव वाला होता है एवं निर्विकल्पक होता है अतः उसमें सैंकड़ों बार प्रवृत्त होने वाले पुरुष के द्वारा भी व्याप्ति ग्रहण नहीं की जा सकती। निर्विकल्पक ज्ञान 'यह इसके होने पर ही होता है,नहीं होने पर नहीं होता' इस प्रकार का व्यापार करने में समर्थ नहीं होता,क्योंकि वह सन्निहित विषय के बल से उत्पन्न होता है एवं अविचारक होता है । निर्विकल्प से उत्पन्न विकल्प भी व्याप्ति का ग्राहक नहीं होता,क्योंकि वह बौद्ध मत में प्रमाण नहीं माना गया है।
स्वभाव हेतु की व्याप्ति विपक्ष में बाधक प्रमाण से होती है,ऐसा मानना भी उचित नहीं है,क्योंकि तब यह शंका होती है कि विपक्ष में बाधक अनुमान की व्याप्ति किसी अन्य अनुमान से होती है अथवा प्रथम अनुमान से ही? यदि अन्य अनुमान से उसकी व्याप्ति सिद्ध होती है तो अनवस्था दोष आता है तथा प्रथम अनुमान से ही सिद्ध होती है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है । इसका कारण है- विपक्ष में व्याप्ति के सिद्ध हुए बिना स्वभाव हेतु से अनुमान नहीं हो सकता तथा अनुमान के सिद्ध हुए बिना व्याप्ति नहीं हो सकती । अतः अनुमान को प्रमाण मानने के लिए व्याप्ति के ग्राहक तर्क को एक पृथक् प्रमाण मानना चाहिए । तर्क से ही व्याप्ति का ग्रहण होता है;प्रत्यक्ष,अनुमान आदि से नहीं ।२९° इस प्रकार तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के अभाव में भी अविनाभाव के बल से ही हेतु अपने साध्य का गमक होता है।
वादिदेवसूरि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से अविनाभाव मानने का खण्डन करने हेतु बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि जहाँ तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति होते हैं वहां अविनाभाव होता है, अथवा जहां अविनाभाव होता है वहां तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति होते हैं ? इनमें प्रथम पक्ष उचित नहीं है,क्योंकि तादात्म्य सम्बन्ध के होने पर भी वृक्ष का शिंशपा ही' होने में व्यभिचार आता है। इसी प्रकार तदुत्पत्ति सम्बन्ध होने २८९. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पृ.४७-४८ २९०.न्यायकुमुदचन्द्रभाग-२ पृ.४८-४९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org