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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
कहा जा सकता है कि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से अविनाभाव व्याप्त नहीं है । २८५ हेतु में अविनाभाव की सिद्धि विद्यानन्द ने योग्यता सम्बन्ध से प्रतिपादित की है। २८६
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प्रभाचन्द्र कहते हैं कि 'अविनाभाव, तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से नियत हैं', यह बौद्ध मान्यता समीचीन नहीं है । तादात्म्य को अविनाभाव का कारण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तादात्म्य (एकात्म्य) के होने पर भेद नहीं रहता और भेद के अभाव में सम्बन्ध नहीं हो सकता तथा सम्बन्ध के अभाव में अविनाभाव घटित नहीं होता । तादात्म्य आदि कोई भी सम्बन्ध तभी हो सकता है जब दो पदार्थ भिन्न हों । निरंश अर्थवादी बौद्धों के मत में तादात्म्य एवं भेद का होना किञ्चित् भी युक्त नहीं है । तादात्म्य का अर्थ है उसकी स्वभावता । इससे साध्य के साथ साधन की एकता प्रकट होती है। एकता होने पर साध्य-साधन का भेद नहीं रह सकता तथा भेद होने पर एकता नहीं हो सकती। इसलिए तादात्म्य सम्बन्ध से शिंशपा हेतु वृक्ष का ज्ञान नहीं करा सकता। तादात्म्य से यदि वह ज्ञान कराता भी है तो हेतु के प्रहण करते समय ही उससे अभिन्न साध्य का भी ज्ञान हो जायेगा, अतः उसके अनन्तर अनुमान करना निष्फल हो जाता है। यदि विपरीत समारोप का व्यवच्छेद करने से अनुमान की सफलता है तो विपरीत समारोप कब होता है? हेतु का स्वरूप ज्ञात होने पर विपरीत समारोप होता है अथवा ज्ञात नहीं होने पर ही हो जाता है ? हेतु का स्वरूप जान लेने पर तो विपरीत समारोप को अवकाश ही नहीं रहता, यथा सिर, हाथ आदि के दिखाई देने पर स्थाणु का समारोप नहीं होता तथा उसका स्वरूप न जानने पर समारोप किसका ? अर्थात् हेतु का स्वरूप न जानने पर समारोप का प्रश्न ही नहीं
उठता ।
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साध्य एवं साधन में तादात्म्य मानने पर जिस प्रकार शिंशपा से वृक्ष का अनुमान किया जाता है। उसी प्रकार वृक्ष से भी शिंशपा का अनुमान होना चाहिए, क्योंकि तादात्म्य तो दोनों में वही है। यदि शिंशपा ही वृक्ष में प्रतिबद्ध है, वृक्ष, शिंशपा में प्रतिबद्ध नहीं है तो फिर तादात्म्य से हेतु को साध्य का गमक कहना उचित नहीं है। अविनाभाव से ही उसे साध्य का गमक कहना चाहिए, क्योंकि तादात्म्य में अविनाभाव नियत नहीं है। २८८
२८५. नान्यथानुपपन्नत्वं ताभ्यां व्याप्तं निक्षेपणात् । संयोग्यादिषु लिङ्गेषु तस्य तत्त्वपरीक्षकैः ॥ अर्वाग्भागोऽ विनाभावी परभागेन कस्यचित् । सोऽपि तेन तथा सिद्धः संयोगी हेतुरीदृश: ।। सास्नादिमानयं गोत्वाद्रौर्वा सास्नादिमत्त्वतः । इत्यन्योन्याश्रयी भावः समवायिषु दृश्यते ॥ चंद्रोदयोऽविनाभावी पयोनिधिविवर्धनैः ।
तानि तेन विनाप्येतत्संबंधद्वितयादिह ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.१३५-३८
२८६. योग्यताखपश्च सम्बन्धः सर्वसम्बन्धभेदगः ।
स्वादेकस्तद्वशाल्लिङ्गमेकमेवोक्तलक्षणम् ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक,
२८७. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पृ. ४४६-४७
२८८. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, पू. ४४७
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१.१३.१४४
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