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अनुमान प्रमाण
अकलङ्क का मत है कि अविनाभाव अथवा अन्यथानुपपन्न से ही साध्य का अव्यभिचरित ज्ञान होता है, अतः तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति की कल्पना व्यर्थ है । वे बौद्धों से कहते हैं कि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति का ज्ञान अन्यथानुपपत्ति वितर्क के बिना नहीं किया जा सकता, अतः तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के बिना ही अन्यथानुपपत्ति को हेतु का एक लक्षण मानना चाहिए । २८०
अकलङ्क ने रूप से रस का अनुमान करने का भी उदाहरण प्रस्तुत किया है, किन्तु इसमें कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध दिखाई देता है, क्योंकि रूप एवं रस पृथक् पृथक् होकर नहीं रहते हैं । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अकलङ्क को तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति सम्बन्ध से होने वाला अविनाभाव भी अभीष्ट है, किन्तु तुला के एक पलड़े के ऊपर उठने से अन्य पलड़े के झुकने आदि का अनुमान तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति रहित होता है तथापि उसमें हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति होती है । २८१ इसे अकलङ्क ने दृढतापूर्वक प्रस्तुत किया है। वे सह एवं क्रमभाव से तादात्म्यादि को स्वीकार करते हैं, तथा तर्क से व्याप्ति का निर्णय मानते हैं । २८२ अकलङ्क मत में तर्क की उत्पत्ति प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से होती है । इसलिए उन्होंने प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से होने वाले संभावनात्मक ज्ञान को तर्क कहा है। तर्क के बिना वे साध्य एवं साधन की व्याप्ति का ज्ञान होना संभव नहीं मानते हैं । २८३
विद्यानन्द प्रतिपादित करते हैं कि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से अन्यथानुपपन्नता व्याप्त नहीं है । कृत्तिकोदय हेतु का शकटोदय साध्य के साथ न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध, तथापि वह अन्यथानुपपन्नत्व के कारण अपने साध्य का गमक है । २८४ संयोगी, समवायी आदि हेतुओं में भी तत्त्वपरीक्षक दार्शनिकों के द्वारा तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के बिना अन्यथानुपपन्नत्व माना गया है 1 यथा - दीवार, नदी आदि के परभाग से अर्वाक् भाग अविनाभावी है, किन्तु उनमें कोई तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार 'यह सास्नादिमान् है, क्योंकि गौ है', 'यह गौ है क्योंकि सास्नादिमान् है' इत्यादि समवायी हेतुओं में अन्योन्याश्रय भाव है । 'चंद्रोदय हुआ है, क्योंकि समुद्रवृद्धि हुई है, आदि उदाहरणों में तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के बिना भी अविनाभाव है, अत: यह
२८०. न हि तादात्म्य तदुत्पत्ती ज्ञातुं शक्येते विनाऽन्यथानुपपत्तिवितर्केण, ताभ्यां विनैव एकलक्षणसिद्धि: । - लघीयस्त्रयवृत्ति,
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२८१. (i) तुलोन्नामरसादीनां तुल्यकालतया हि न ।
नामरूपादिहेतुत्वं न च तद्व्यभिचारिता ||
तादात्म्यं तु कथञ्चित्स्यात् ततो हि न तुलान्तयोः ॥ न्यायविनिश्चय, २.३३८-३९ (ii) द्रष्टव्य, Akalanika's criticism of Dharmakirti's Philosophy, p. 257. २८२. तादात्म्यादि प्रतीम: एकलक्षणविदो वयम् ।
सहक्रमविदामेकं तर्कात् स्वसंवेदनम् ॥ - सिद्धिविनिश्चय, ६.४१
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२८३. (१) प्रत्यक्षानुपलम्भश्च विधानप्रतिषेधयोः ।
अन्तरेणेह सम्बन्धमहेतुरिव लक्ष्यते ॥
(२) द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, २७४ २८४. किं न तादात्म्यतज्जन्मसम्बन्धाभ्यां विलक्षणात् ।
अन्यथानुपपन्नत्वाद् हेतुः स्यात्कृत्तिकोदयः ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.१३४
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न्यायविनिश्चय, २. १६७-६८
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