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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा जैनदार्शनिकों ने बड़ी समझपूर्ण दृष्टि से तर्क को व्याप्ति का ग्राहक अंगीकार किया है। तर्क को व्याप्ति का ग्राहक प्रतिपादित करने के साथ जैनदार्शनिकों ने उसे पृथक् प्रमाण के रूप में भी प्रतिष्ठित किया है । २६२ I अकलङ्क ने प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ से होने वाले संभावनात्मक ज्ञान को तर्क कहा है माणिक्यनन्दी ने उपलम्भ एवं अनुपलम्भपूर्वक होने वाले व्याप्तिज्ञान को तर्क कहा है। २७५ यहां उपलम्भ और अनुपलम्भ पदों से प्रमाणमात्र का ग्रहण किया गया है। प्रत्यक्ष से गृहीत साध्य एवं साधन ही नहीं, अपितु अनुमान और आगम के विषयभूत पदार्थों में भी अविनाभाव का निश्चय तर्क द्वारा होता है। इसलिए वादिदेवसूरि ने अपने तर्क-लक्षण में उपलम्भ एवं अनुपलम्भ से उत्पन्न, कालिक साध्यसाधन विषयक सम्बन्ध को ग्रहण करने वाले " यह इसके होने पर ही होता है” इत्यादि आकार वाले ज्ञान को तर्क प्रतिपादित किया है। २७६ व्याप्ति का ग्रहण करने के कारण जैन दार्शनिकों ने तर्क को एक पृथक् प्रमाण माना है, जिसकी चर्चा पांचवें अध्याय में की गयी है । तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति द्वारा अविनाभाव मानने का खण्डन जैन दार्शनिक अकलङ्क, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के बिना भी हेतु में साध्य के साथ अविनाभाव या व्याप्ति की सिद्धि की है, अतः वे तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के द्वारा अविनाभाव मानने वाले बौद्धमत का निरसन करते हैं। भट्ट अकलङ्क कहते हैं कि तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के बिना ही अविनाभाव सिद्ध है। ऐसे अनेक हेतु हैं जिनका अपने साध्य से न तादात्म्य सम्बन्ध है और न तदुत्पत्ति, फिर भी वे अपने साध्य के गमक हैं । तुला के एक पलड़े को झुका हुआ देखकर दूसरे पलड़े के ऊंचे होने के अनुमान में अविनाभाव तो है, किन्तु तादात्म्य या तदुत्पत्ति नहीं । २७७ इसी प्रकार कृत्तिकोदय से शकटोदय के अनुमान में व्याप्ति तो है, किन्तु वहां भी तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है । २७८ चन्द्र के अर्वाक् भाग को देखकर उसके परभाग का अनुमान किया जाता है । इनमें व्याप्ति है, किन्तु कार्यकारण भाव एवं तादात्म्य नहीं है । परभाग एवं अर्वाक् भाग के साथ-साथ रहने के कारण इनमें कार्यकारणभाव अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता तथा दोनों में तादात्म्य इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दोनों भिन्न लक्षण-युक्त हैं । २७९ २७४ २७४. सम्भवप्रत्ययस्तर्क प्रत्यक्षानुपलम्भतः । प्रमाणसंग्रह, १२ २७५. उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः । परीक्षामुख, ३.७ २७६. उपलम्भानुपलम्भसम्भवं त्रिकालीकलितसाध्यसाधनसम्बन्धाद्यालम्बनं “ इदमस्मिन् सत्येव भवति" इत्याद्याकारं संवेदनमूहापरनामा तर्कः । — प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.७ २७७. परस्पराविना भूतौ नामोन्नामौ तुलान्तयोः । - सिद्धिविनिश्चय, ६. १५ २७८. भविष्यत्प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात् । -- लघीयस्त्रय, १४ २७९. तदेतस्मिन् प्रतिबन्धनियमे कथं चन्द्रादेर्वाग्भागदर्शनात् परभागोऽमुमीयेत ? नानयो: कार्यकारणभावः सहैव भावात् । न च तादात्म्यम् लक्षणभेदात् अलमन्यथानुपपत्तेरनवद्यमनुमानम् । - सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, पृ. ३७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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