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अनुमान-प्रमाण
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पलड़े के झुकने का ज्ञान,चन्द्रमा के अर्वाक् भाग को देखकर परभाग का ज्ञान आदि अनुमिति के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को व्याप्ति का निमित्त नहीं कहा जा सकता,तथापि उनसे अव्यभिचरित रूप से साध्य का ज्ञान होता है। इसलिए जैन-दार्शनिक तादात्म्यलक्षण अविनाभाव एवं तदुत्पत्तिलक्षण अविनाभाव से अधिक व्यापक प्रत्यय निर्धारित करने की ओर प्रवृत्त हुए तथा उन्होंने अविनाभाव को दो प्रकार का प्रतिपादित किया-सहभाव अविनाभाव एवं क्रमभाव अविनाभाव ।२७° यद्यपि सहभाव एवं क्रमभाव अविनाभाव का स्पष्ट प्रतिपादन माणिक्यनन्दी द्वारा किया गया है,किन्तु इसके बीज अकलङ्क के ग्रंथ में मिलते हैं ।२७१ दो सहचारी पदार्थो एवं व्याप्य व्यापक पदार्थों में सहभाव अविनाभाव होता है । इस अविनाभाव से स्वभाव,व्याप्य,एवं सहचर हेतु साध्य के गमक होते हैं। पूर्वचर, उत्तरचर,कार्य एवं कारण हेतुओं में क्रमभाव अविनाभाव होता है ।२७२ इन दो प्रकार के अविनाभाव से समस्त हेतु साध्य के गमक सिद्ध हो जाते हैं। तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति नियम से पूर्वचर,उत्तरचर,कारण आदि हेतुओं की साध्य के साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं होती, जबकि क्रमभाव एवं सहभाव अविनाभाव से समस्त हेतुओं में साध्य की गमकता उत्पन्न हो जाती
व्याप्ति-ग्राहक-जैन दार्शनिकों ने तर्क को व्याप्ति का ग्राहक अथवा निश्चायक अंगीकार किया है।२७३ प्रत्यक्ष अनुमान आदि किसी अन्य ज्ञान को वे व्याप्ति ग्राहक नहीं मानते हैं। भारतीय दर्शन में व्याप्ति की ग्राहकता के सम्बन्ध में विवाद है । कुछ न्यायाचार्यों ने मानस-प्रत्यक्ष को व्याप्ति का ग्राहक माना है । कुमारिल भूयोदर्शन को व्याप्ति का ग्राहक मानते हैं। वाचस्पतिमिश्र ने तर्कसहकृत भूयोदर्शन को व्याप्ति का ग्राहक माना है,जो जैनदार्शनिक सम्मत व्याप्तिग्राहक तर्क के महत्त्व को भी ज्ञापित करता है । जयन्तभट्ट ने नियतसहचार को,श्रीधर ने उपाधिविहीन भूयोदर्शन को,गंगेश ने व्यभिचारादर्शन सहकृत सहचारदर्शन को व्याप्ति का प्राहक माना है । बौद्धों ने तदुत्पत्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से तथा तादात्म्य का ज्ञान विपक्ष में बाधक प्रमाण के सद्भाव से किया है। जैन दार्शनिकों का मन्तव्य है कि प्रत्यक्ष द्वारा भूयोदर्शन होने पर भी कालिक व्याप्ति संभव नहीं है, प्रत्यक्ष द्वारा तो उस समय विद्यमान पदार्थों के सम्बन्धका ज्ञान होता है,भूत एवं भविष्यकालीन पदार्थों की व्याप्ति का ज्ञान तर्क प्रमाण द्वारा ही संभव है। तर्कप्रमाण का उद्भव जैन दार्शनिकों ने उपलम्भ एवं अनुपलम्भ के द्वारा माना है,जो उन्हें बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ सिद्धान्त के निकट ले जाता है। अनुमान से व्याप्तिज्ञान मानने पर अनवस्था दोष आता है.क्योंकि व्याप्ति के बिना अनुमान संभव नहीं है,और अनुमान के बिना व्याप्ति ज्ञान संभव नहीं है । इसलिए
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२७०. सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः।- परीक्षामुख , ३.१२ २७१. सहक्रमविदामेकं तात् स्वसंवेदनम् ।-सिद्धिविनिश्चय, ६.४१ २७२. सहचारिणोाप्यव्यापकयोश्च सहभावः । पूर्वोत्तरचारिणो कार्यकारणवोश्च क्रममावः।-परीक्षामुख, ३.१३-१४ २७३. तातन्निर्णयः ।- परीक्षामुख, ३.१५
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