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________________ २५८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा कारणों से होता है, या तो लिङ्ग का साध्य से तादात्म्य रहता है अथवा फिर साध्य से उसकी उत्पत्ति होती है। जिस लिङ्ग का साध्य के साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं होता है वह लिङ्ग साध्य का अविनाभावी नहीं होता है, यथा प्रमेयत्व हेतु अनित्यत्व का अविनाभावी नहीं होता है,क्योंकि उसका अनित्यत्व साध्य के साथ न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति ।२५४ जहां हेतु का साध्य के साथ तादात्म्य नहीं है अथवा हेतु साध्य से उत्पन्न (तदुत्पन्न) नहीं हुआ है वहां हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति नहीं होती । व्याप्ति के लिए आवश्यक है कि हेतु का साध्य के साथ तादात्म्य या तदुत्पत्ति सम्बन्ध हो । सहचार दर्शन मात्र से किसी हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति नहीं कही जा सकती। बौद्धमत में हेतु के तीन प्रकार हैं- (१)स्वभाव,(२) कार्य एवं (३) अनुपलब्धि ।२५५ इनमें स्वभाव हेतु का अपने साध्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होता है तथा कार्यहेतु का अपने साध्य के साथ तदुत्पत्ति सम्बन्ध । ये दोनों हेतु विधि साधक हैं। अनुपलब्धि हेतु निषेधसाधक है। निषेध की सिद्धि दृश्यानुपलब्धि हेतु से ही हो जाती है, क्योंकि वस्तु के होने पर दृश्यानुपलब्धि का होना असम्भव है । अनुपलब्धि हेतु का स्वभाव हेतु में अन्तर्भाव कर लिया गया है अतः उसके अविनाभाव का ग्रहण भी तादात्म्य से होता है। धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक में तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के सम्बन्ध में कहते हैं- "अविनाभाव का ग्रहण कार्यकारण भाव से होता है, अथवा नियत स्वभाव से होता है। हेतु के सपक्ष में दर्शन और विपक्ष में अदर्शन मात्र से अविनाभाव की सिद्धि नहीं होती।” २५६ कार्य कारणभाव तदुत्पत्ति का द्योतक है तथा नियतस्वभाव तादात्म्य का द्योतक है । धर्मकीर्ति ने हेतु के सपक्ष में दर्शन एवं विपक्ष में अदर्शन मात्र से अविनाभाव का ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि इनमें व्यभिचार भी हो सकता है । तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के अतिरिक्त संयोग,समवाय आदि सम्बन्धों से हेतु में अविनाभाव का धर्मकीर्ति ने निषेध किया है। २५७ ___ जैन दार्शनिक प्रभाचन्द ने इस विषय का बौद्ध ग्रंथानुसार प्रामाणिक प्रतिपादन किया है अतः उसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । प्रभाचन्द्र बौद्धमत को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि अविनाभाव के बल से ही सर्वत्र हेतु साध्य का गमक होता है । वह अविनाभाव तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से नियत होने के कारण कार्य एवं स्वभाव हेतु में ही रहता है । २५८ तादात्म्य से स्वभाव हेतु में अविनाभाव होता है तथा तदुत्पत्ति से कार्यहेतु में अविनाभाव होता है । इन दो के अतिरिक्त हेतु नहीं हैं.क्योंकि २५४. यस्य येन सह तादात्म्यतदुत्पत्ती न स्तो न स तदविनाभावी यथा प्रमेयत्वादिरनित्यत्वादिना । - हेतुबिन्दुटीका, पृ.९ २५५. अनुपलब्धिः स्वभावः कार्यञ्चेति ।- न्यायबिन्दु, २.११ २५६. कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् । अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न न दर्शनात् ॥-प्रमाणवार्तिक, ३.३१ २५७.संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः । नते हेतव इत्युक्तं व्यभिचारस्य संभवात् ॥-प्रमाणवार्तिक, ४.२०३ २५८. तुलनीय- ते च तादात्म्यतदुत्पती स्वभावकार्ययोरेवेति ताभ्यामेव वस्तुसिद्धिः।-न्यायबिन्दु, २.२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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