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________________ अनुमान-प्रमाण २५७ साध्य का गमक होता है ।२४६ प्रश्न उठता है कि वह स्वभाव प्रतिबन्ध किसका होता है,तथा किसमें होता है ? अर्थात् कौन प्रतिबद्ध होता है तथा कौन प्रतिबंध का विषय बनता है ? धर्मकीर्ति ने इसका समाधान करते हुए प्रतिपादित किया है कि वह स्वभाव प्रतिबन्ध लिङ्गका साध्य अर्थ में होता है ।२४० अर्थात् लिङ्ग या हेतु साध्य अर्थ में प्रतिबद्ध होकर साध्य का गमक होता है । यदि लिङ्ग स्वभाव से साध्य में प्रतिबद्ध नहीं हो तो वह अव्यभिचरित रूप से साध्य का गमक नहीं हो सकता।"धर्मोत्तर कहते हैं कि लिङ्ग परायत्त होने के कारण प्रतिबद्ध होता है तथा साध्य अर्थ अपरायत्त होने के कारण प्रतिबंध का विषय होता है । जो प्रतिबद्ध होता है वह गमक होता है तथा जो प्रतिबन्ध का विषय होता है वह गम्य होता है । २४९ प्रयत्नान्तरीयकता हेतु अनित्यत्वसाध्य में प्रतिबद्ध है,इसलिए वह अनित्यता का गमक है । किन्तु अनित्यता प्रयत्नान्तरीयकता में प्रतिबद्ध नहीं है, इसलिए वह प्रयत्नान्तरीयकता की गमक नहीं होती है। इनमें गम्यगमकभाव अव्यभिचारनियम के कारण होता है। २५० हेतु साध्य में प्रतिबद्ध होता है, इसलिए वह साध्य के बिना नहीं होता है। ___ व्याप्ति को हेतुबिन्दु में परिभाषित करते हुए धर्मकीर्ति कहते हैं कि व्यापक के होने पर ही व्याप्य का होना तथा व्याप्य के होने पर व्यापक का होना ही,व्याप्ति है। ५१ व्यापक का अर्थ है साध्य तथा व्याप्य का अर्थ है हेतु । इस प्रकार साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथा हेतु के होने पर साध्य का होना ही व्याप्ति कही गयी है। व्याप्ति के इस स्वरूप को भिन्न प्रकार से भी प्रकट किया गया है,यथा लिङ्ग के होने पर लिङ्गी होता ही है तथा लिङ्गी के होने पर ही लिङ्ग होता है,अन्यथा नहीं।' इस नियम का विपर्यास होने पर लिङ्ग एवं लिङ्गी में सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता।५२ इस प्रकार बौद्ध मत में स्वभाव-प्रतिबन्ध,अविनाभाव-नियम अथवा व्याप्ति एकार्थक हैं। व्याप्ति के होने पर ही लिङ्गसाध्य का गमक होता है,व्याप्ति के अभाव में नहीं। ___ व्याप्ति या स्वभाव-प्रतिबन्ध का निमित्त बौद्ध दार्शनिकों ने तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति को स्वीकार किया है। उनके मत में साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के द्वारा व्याप्त रहता है।५३ धर्मकीर्ति कहते हैं कि साध्य अर्थ के साथ लिङ्ग का स्वभाव-प्रतिबंध अथवा अविनाभावदो २४६. स्वभावप्रतिबंधे हि सत्योंऽयं गमयेत् ।-न्यायबिन्दु, २.१९ २४७. स च प्रतिबंधः साध्येऽ लिङ्गस्य ।-न्यायबिन्दु, २.२१ २४८. तदप्रतिबद्धस्य तदव्यभिचारनियमाभावात् ।-न्यायबिन्दु, २.२० २४९. लिा परायत्तत्वात् प्रतिबद्धम् । साध्यस्त्वोंऽपरायत्तत्वात् प्रतिबंधविषयो यत् प्रतिबद्धं तद् गमकं । यत् प्रतिबन्धविषयः तद्गम्यम्।-न्यायविन्दुटीका , २.२१, पृ.१३३ २५०. अव्यभिचारनियमाच्च गम्यगमकभावः ।- न्यायबिन्दुटीका २.२०, पृ.१३२ २५१. तस्य व्याप्तिर्हि व्यापकस्य तत्र भाव एव । व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः ।-हेतबिन्दु, पृ.५३ २५२. लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव लिजिन्येवेतरत् पुनः । नियमस्य विपर्यासेऽसम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः ॥-हेतुबिन्दुटीका, पृ.१८ २५३.(१) वस्तुतस्तादात्म्यात् तदुत्पत्तेश्च ।-न्यायबिन्दु, २.२२ (२) तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामविनाभावो व्याप्त; तयोस्तवावश्यम्भावात् । - हेतुबिन्दुटीका, पृ.८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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