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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
आदि नामों को एकार्थक स्वीकार किया है ।२४° बौद्ध दर्शन में प्रयुक्त स्वभाव प्रतिबन्ध एवं जैनदर्शन में प्रयुक्त अन्यथानुपपत्तिनियम को भी व्याप्ति का पर्यायवाची माना जा सकता है । व्याप्ति एक प्रकार से साधन का साध्य के साथ अव्यभिचरित नियम है । साधन के होने पर साध्य होता ही है ।इसलिए इनके साहचर्यनियम को भी व्याप्ति कहा गया है ।२४१ मीमांसकों ने इसे लिङ्ग धर्म का लिङ्गी के साथ सम्बन्ध रूप नियम प्रतिपादित किया है ।२४२ न्यायदर्शन में साहचर्यनियम के अतिरिक्त साध्य एवं साधन के स्वाभाविक सम्बन्ध को भी व्याप्ति कहा गया है ।२४३ जिससे आईईंधन एवं धूम जैसे
औपाधिक सम्बन्ध का परिहार हो जाता है । साधन एवं साध्य का साहचर्य सम्बन्ध स्वाभाविक होने पर ही उसे व्याप्ति कहा गया है। नव्यन्याय के अनुसार हेतु और उसके व्यापक साध्य का सामान्याधिकरण ही व्याप्ति है । यथा गंगेश के शब्दों में जो साध्य,हेतु के प्रतियोगी व्यधिकरण तथा समान अधिकरण में विद्यमान रहने वाले अत्यन्ताभाव की प्रतियोगिता के अवच्छेदक धर्म से अवच्छिन्न न हो,उसके साथ हेतु सामान्याधिकरण्य ही व्याप्ति है।२४४ व्याप्ति में साधन का साध्य के साथ अविच्छेद्य सम्बन्ध अनिवार्य होता है । धूम का अग्नि के साथ नियत साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध है अर्थात् धूम की अग्नि के साथ व्याप्ति है। इसलिए धूम-हेतु अग्नि-साध्यका गमक होता है। साध्य की हेतु के साथ व्याप्ति नहीं होती है,क्योंकि उसका नियत साहचर्य नहीं है,साध्य हेतु के अभाव में भी रह सकता है । इस प्रकार सभी भारतीय दर्शनों में व्याप्ति के द्वारा हेतु को साध्य का गमक स्वीकार किया गया है । बौद्ध दर्शन में व्याप्ति ___ बौद्ध दर्शन में व्याप्ति के लिए अविनाभावनियम,स्वभाव-प्रतिबंध एवं अव्यभिचार नियम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। धर्मकीर्ति अविनाभावनियम से हेतु को पक्षधर्म एवं उसके अंश में व्याप्त बतलाते हैं । अविनाभाव नियम के अभाव में वे हेतु को हेत्वाभास कहते हैं।२४५ अविनाभावनियम का अर्थ है हेतु का साध्य के अभाव में नियमतःकभी भी न होना । साध्य के अभाव में जो हेतु नहीं होता, वही हेतु साध्य का गमक हो सकता है, अन्य नहीं। न्यायबिन्दु में धर्मकीर्ति ने व्याप्ति को स्वभाव-प्रतिबंध शब्द से प्रकट किया है । धर्मकीर्ति कहते हैं कि स्वभाव प्रतिबंध होने पर ही हेतु,
२४०. अविनाभावनियमो व्याप्तिर्नियमः प्रतिबन्धः साध्याविनाभावित्वमित्यर्थः । २४१. यत्रधुमस्तवाग्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्तिः।- तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण, पृ.७२ २४२.(१) सम्बन्धतो व्याप्तिरिष्टात्र लिङ्गधर्मस्य लिङ्गिना।- श्लोकवार्तिक, अनुमान परिच्छेद, ४
(२) व्याप्तिः- नियमः ।-न्यायरत्नाकर, श्लोकवार्तिक, अनुमानपरिच्छेद.४ २४३. स्वाभाविकश्च सम्बन्धो व्याप्तिः।-तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण, पृ.७६ २४४. प्रतियोग्यसमानाधिकरणयत्समानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नं यत्र भवति तेन समं तस्य सामा
नाधिकरण्यं व्याप्तिः।- तत्त्वचिन्तामणि, उद्धृत, माथुरीपञ्चलक्षणी, भूमिका पृ. ५२ २४५. पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुविधैव सः।
अविनाभावनियमात् हेत्वाभासास्ततोऽपरे ॥ --प्रमाणवार्तिक , ३.१, हेतुबिन्दु, पृ.५३
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