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________________ अनुमान-प्रमाण २५५ अदृश्य है अतः उसके क्षणिकत्व की सिद्धि भी अनुमान द्वारा नहीं की जा सकेगी।२३१ इसलिए जो वस्तु उपलब्धियोग्य कारणों के सद्भाव में भी अदृश्य हो,उसकी उपलब्धि या अनुपलब्धि का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता,वह आगमादि प्रमाणान्तर से सिद्ध की जा सकती है। जैन दार्शनिकों ने अनुपलब्धि हेतु को अपने हेतु-भेदों में स्थान तो दिया है,किन्तु वे बौद्धों की भांति उसे मात्र निषेध साधक नहीं मानते । जैन दार्शनिकों के अनुसार अनुपलब्धि हेतु विधि एवं निषेध दोनों का साधक होता है। अनुपलब्धि हेतु के जैन दार्शनिकों ने इसीलिए मूलतःदो भेद किये हैं । (१) अविरुद्धानुपलब्धि और (२)विरुद्धानुपलब्धि।२३२ इनमें अविरुद्धानुपलब्धि को वे प्रतिषेध साधक मानते हैं२३३ तथा विरुद्धानुपलब्धि को विधिसाधक प्रतिपादित करते हैं । २३४ इनका विस्तृत वर्णन हेतु-भेदों के प्रसङ्ग में किया जा चुका है। व्याप्ति-विमर्श अनुमान-प्रमाण में व्याप्ति का सर्वाधिक महत्त्व है। क्योंकि साध्य के साथ साधन की व्याप्ति हुए बिना वह साध्य का गमक नहीं हो सकता । साध्य एवं साधन का अव्यभिचरित अनिवार्य सम्बन्ध व्याप्ति है। जब तक साधन या हेतु का साध्य के साथ अव्यभिचरित अनिवार्य सम्बन्ध न हो तब तक वह साध्य का सदैव गमक नहीं हो सकता । यद्यपि हेतु का लक्षण करते समय बौद्ध दार्शनिकों ने त्रिरूपता सम्पन्न हेतु को सद् हेतु कहा है तथा नैयायिकों ने पांचरूप्य सम्पन्न हेतु को सद्हेतु माना है, किन्तु वे भी व्याप्ति या अविनाभाव के अभाव में हेतु को साध्य का गमक स्वीकार नहीं करते हैं।२३५ न्यायदर्शन में इसीलिए हेतु को व्याप्तिबल से साध्य-अर्थ का गमक प्रतिपादित कर२३६ पांचरूप्य का समापन अविनाभाव में किया है ।२३७ बौद्ध दार्शनिक भी हेतु को अविनाभाव नियम से सद्हेतु या साध्य का गमक स्वीकार करते हैं, अन्यथा उस हेतु को हेत्वाभास मानते हैं ।२३८ जैन दार्शनिकों ने त्रैरूप्य एवं पांचरूप्य को आवश्यक नहीं माना,किन्तु हेतु को अविनाभाव नियम से ही साध्य का गमक स्वीकार किया है। उन्होंने हेतु का लक्षण ही साध्य के साथ निश्चित अविनाभावित्व दिया है।२३९ इसलिए व्याप्ति को स्वीकार किये बिना कोई भी हेतु साध्य का गमक नहीं होता। भारतीय दर्शन में व्याप्ति के लिए जयन्तभट्टने अविनाभावनियम,नियम,प्रतिबन्ध,साध्याविनाभावित्व २३१. अदृश्यानुपलब्धःसंशयकान्ते न केवलं परचित्ताभावो न सियति अपितु स्वचितभावश्च, तदनंशतत्त्वस्य अदृश्या त्मकत्वात् । तथा च कुतः परमार्थसतः क्षणभंगसिद्धिः? तद्विपरीतस्याभेदलक्षणस्यैव स्यात् । -लषीयमयवृत्ति, १५ २३२. अनुपलब्धेरपि दैरूप्यं-अविरुखानुपलब्धिः विरुद्धानुपलब्धिश्च ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.९३ २३३. तत्राविरुखानुपलब्धिःप्रतिषेधावबोधे सप्तप्रकारा।-प्रमाणनयतत्वालोक, ३.९४ २३४.विरुखानुपलब्धिस्तु विधिप्रतीती पंचधा ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.१०३ २३५. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,१५८-१५९ २३६. व्याप्तिबलेनार्थगमकं लिङ्गम्।- तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण, पृ.७२ २३७. एतेषु पञ्चसु लक्षणेषविनाभावो लिास्य परिसमाप्यते। जयन्तभट्ट न्यायमचारी, पृ.१०१ २३८.अविनामावनियमात्, हेत्वाभासास्ततोऽपरे ।- प्रमाणवार्तिक, ३.१ २३९. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः।- परीक्षामुख, ३.११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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