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________________ २५४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा - अनुमान आदि की भांति 'अभाव' को एक पृथक् प्रमाण मानते हैं। नैयायिकों ने अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा माना है। जैन दार्शनिक अभाव के ज्ञान को प्रत्यक्ष, अनुमान,प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाणों में अन्तर्भूत करते हैं। बौद्ध दार्शनिक अनुपलब्धि हेतु द्वारा उसी घटादि अर्थ के अभाव का ज्ञान करते हैं, जो उपलब्धिलक्षण प्राप्त हो । उपलब्धिलक्षण प्राप्ति का तात्पर्य है घटादि अर्थ की उपलब्धि में चक्षु आदि सकल कारणों की सन्निधि हो तथा ज्ञायमान अर्थ में दृश्य होने का स्वभावविशेष हो । दृश्य होने के स्वभाव विशेष का तात्पर्य है कि अन्य समस्त उपलम्भप्रत्ययों के होने पर उसका प्रत्यक्ष निश्चित रूप से हो। इस प्रकार दर्शन योग्य घटादि पदार्थ के भूतल आदि पर अभाव का ज्ञान बौद्ध दार्शनिक अनुपलब्धि हेतु से करते हैं।२२७ एक ज्ञान से जब अन्य भूतलादि दृश्य वस्तु की उपलब्धि हो,तथा घटादि दृश्य पदार्थों की उपलब्धि न हो तो समझना चाहिए की उसकी उपलब्धि के समस्त कारण विद्यमान हैं। तब ही अनुपलब्धि हेतु द्वारा दृश्य घटादि पदार्थों के अभाव का ज्ञान होता है,यथा"प्रदेश विशेष में घट नहीं है,क्योंकि उपलब्धि लक्षणों के प्राप्त होने पर भी वह अनुपलब्ध है।" धर्मोत्तर कहते हैं कि इस उदाहरण में प्रतिपत्ता के द्वारा प्रत्यक्ष किया गया प्रदेश विशेष पक्ष है,घट का अभाव साध्य है तथा अनुपलब्धि हेतु है ।२२८ बौद्ध दार्शनिक इस बात का दृढ़ता पूर्वक प्रतिपादन करते हैं कि दृश्य वस्तुओं के अभाव का ही ज्ञान अनुपलब्धि हेतु द्वारा संभव है, अदृश्य वस्तुओं का नहीं,क्योंकि विप्रकृष्ट आदि अदृश्य वस्तुओं का ज्ञान संशययुक्त होता है । जो वस्तु देशकाल और स्वभाव से अतीन्द्रय होती है वह अदृश्य होती है तथा उसके अभाव को अनुपलब्धि हेतु द्वारा नहीं जाना जा सकता।२२९ जैन दार्शनिक अकलङ्कने बौद्धों की इस मान्यता का खण्डन किया है कि जो वस्तु दर्शन योग्य (दृश्य) होती है अनुपलब्धि हेतु द्वारा मात्र उसी के अभाव का ज्ञान होता है । अकलङ्कका मन्तव्य है कि अदृश्य वस्तुओं की अनुपलब्धि का भी ज्ञान हो सकता है । दूसरे मनुष्य के मृत शरीर में अदृश्य चैतन्य के अभाव का ज्ञान लौकिक पुरुषो के अनुभव का विषय है । शरीर के आकार,विकारादि से चैतन्य के अभाव का ज्ञान होता ही है ।२३० ___ इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि अदृश्य वस्तुओं की अनुपलब्धि का ज्ञान संशययुक्त होने के कारण अनुपलब्धि हेतु द्वारा होना संभव नहीं। दूसरे का चैतन्य ही नहीं, अपितु अपने शरीर में विद्यमान चैतन्य भी अदृश्य है, अतः वह भी किसी हेतु से सिद्ध नहीं हो सकेगा। परमार्थसत् भी २२७. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण १६३, एवं हेतु-भेदों में कृत अनुपलब्धि हेतु का वर्णन २२८. न्यायविन्दुटीका २.१२, पृ.११७ २२९. अदृश्यमानास्तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टाः स्वभावविशेषरहिता प्रत्ययान्तरसाकल्यवन्तस्तु ।- न्यायबिन्दुटीका, २.१४,पृ. १२२ २३०. अदृश्यपरचित्तादेरभाव लौकिकाः विदुः । तदाकारविकारादेरन्यथानुपपत्तितः।- लषीयलय, १५ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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