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________________ अनुमान प्रमाण अवस्थित रहते हैं उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता । यथा घट एवं पट परिहार पूर्वक अवस्थित रहते हैं, अत: उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार सहचारी साध्यसाधन में भी तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता । इनमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं होता, क्योंकि ये समान काल में उत्पन्न होते हैं । जिनके उत्पन्न होने का काल एक है उनमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं बनता, जैसे गाय के दांये एवं बांये सींग के साथ उत्पन्न होने से उनमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं होता । बौद्ध कहते हैं कि आस्वादन में आ रहे रस से सामग्री का अनुमान होता है । उस सामग्री के अनुमान से रूप का अनुमान होता है । अतः यह अनुमितानुमान होने से असत् है । प्रभाचन्द्र ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा है कि ऐसे व्यवहार का अभाव है । आस्वाद्यमान रस से व्यवहार करने वाले पुरुष सामग्री का अनुमान नहीं करते, अपितु रस के समकाल में रहने वाले रूप का अनुमान करते हैं । बौद्धों ने भी 'प्रामाण्यं व्यवहारेण' से व्यवहार का प्रामाण्य अंगीकार किया है, अतः व्यवहार को अधिक महत्त्व देना चाहिए । २५३ प्रभाचन्द्र बौद्धों के प्रति नया प्रश्न खड़ा करते हुए कहते हैं कि यदि सामग्री से रूप का अनुमान होना स्वीकार करते हैं तो फिर कारण से कार्य का अनुमान होना सिद्ध हो जाता हैं, फलस्वरूप त्रिसंख्यात्मक हेतु में व्याघात उत्पन्न हो जाता है, और बौद्धमत में कारणहेतु को भी स्वीकृति मिल जाती है । २२५ समीक्षण पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं की भांति सहचर हेतु की मान्यता भी जैन दार्शनिकों की लौकिकव्यवहार के प्रति सजगता एवं व्यापक दृष्टिकोण को इंगित करती है। दैनन्दिन जीवन में सहचर तु से अनेक बार अनुमिति होती रहती है। सिक्के के एक पहलू को देखकर दूसरे पहलू का अनुमान, tara पूर्वभाग को देखकर पश्चात् भाग का अनुमान, एक चावल को पका देखकर अन्य चावलों के पकने का अनुमान सहचर हेतु के ही उदाहरण हैं। बौद्धों द्वारा मान्य हेतुओं पर भी जैन दार्शनिकों ने विचार किया है। स्वभाव, कार्य एवं अनुपलब्धि हेतुओं को जैन दार्शनिकों ने मान्य तो किया है, २२६ किन्तु अनुपलब्धि हेतु के स्वरूप में कुछ भिन्नता प्रकट की है। कार्य हेतु को जैन एवं बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित शेषवत् हेतु का संशोधित रूप कहा जा सकता है । स्वभाव हेतु का प्रतिपादन बौद्ध दार्शनिकों की भारतीय दर्शन को अनूठी देन है, जिसका जैन हेतु-भेदों में भी अन्तर्भाव हुआ है । अनुपलब्धि हेतु पर विचार बौद्ध दार्शनिकों ने अभाव का ज्ञान अनुपलब्धि हेतु द्वारा स्वीकार किया है। मीमांसक प्रत्यक्ष, २२५. प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, भाग-२, पृ. ३९९-४०० २२६. जैन दार्शनिक तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति के कारण स्वभाव एवं कार्य हेतु में अविनाभावित्व मानने का खण्डन करते हैं। द्रष्टव्य आगे 'व्याप्ति विमर्श', पृ. २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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