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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदष्टि से समीक्षा
समुद्रवृद्धि का,उद्गृहीताण्डकपिपीलिकोत्सर्पण (अण्डे ग्रहण कर चींटियों के गमन हेतु) से भावी वर्षा का ज्ञान होता है । २२१ समीक्षण
पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं का स्थापन जैन दार्शनिकों की सांव्यवहारिक दृष्टि का परिचायक है। आज भी हम, आज रविवार होने से, कल होने वाले सोमवार का तथा बीते हुए शनिवार का अनुमान कर लेते हैं । यह पूर्वचर एवं उत्तरचर हेतुओं का प्रयोग है । कुछ घटनाओं के घटित होने का जब निश्चित क्रम हो एवं उस क्रम से घटना निश्चित रूप से घटित हुई हो या होने वाली हो तो पूर्वचर एवं उत्तर हेतुओं का उपयोग निश्चित रूप से उपादेय है। मौसमविज्ञान की जानकारी, सिगनल से ट्रेन आने की जानकारी पूर्वचर हेतु द्वारा ही निर्धारित होती है। उत्तरचर हेतु भी इसी प्रकार दैनिक उपयोग में आता रहता है । किन्तुं पूर्ण तार्किक दृष्टि से हेतु-लक्षण का विचार किया जाय तो पूर्वचर एवं उत्तरचरहेतुओं में साध्याविनाभाविता सिद्ध नहीं की जा सकती,क्योंकि पूर्वचर हेतु में तो हेतु साध्य के पूर्व होने से,उसके अभाव में भी रहता है,किन्तु सांव्यवहारिक दृष्टि से क्रमभावी अविनाभाव स्वीकार कर पूर्वचर आदि को हेतुरूप में अङ्गीकार किया जा सकता है । सहचर हेतु
सहचर हेतु को भी जैन दार्शनिकों ने स्वभाव, कार्य एवं अनुपलब्धि से पृथक् हेतु सिद्ध किया है। अकलङ्क ने 'तुला के एक पलड़े के ऊपर उठने से उसके दूसरे पलड़ेके झुकने का अनुमान 'चन्द्रादि के अर्वाग्भाग को देखकर उसके परभाग का अनुमान' आदि अनुमिति के अनेक ऐसे उदाहरण दिये हैं जो सहचर हेतु की उपादेयता को प्रस्तुत करते हैं । २२२ माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि ने आम्रफल में रस से रूप की अनुमिति को सहचर हेतु का उदाहरण बतलाया है ।२२३ ।।
माणिक्यनन्दी ने सहचर हेतु की पृथक्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि सहचारी साध्य एवं साधन में भी तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं हो सकते, क्योंकि ये सहचारी परस्पर का परिहार करके अवस्थित रहते हैं तथा साथ उत्पन्न होते हैं।२२४ तादात्म्य सम्बन्ध होने पर स्वभाव हेतु तथा तदुत्पत्ति सम्बन्ध होने पर कार्यहेतु माना जा सकता है ,अन्यथा नहीं । इसलिए सहचर हेतु एक भिन्न हेतु है । प्रभाचन्द्र ने माणिक्यनन्दी के कथन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो परस्पर परिहारपूर्वक २२१. (१) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ.३९७
(२) पिपीलिकोत्सरण, मत्स्यविकार आदि से वर्षा आदि के अनुमान को धर्मकीर्ति ने कार्य हेतु माना है । द्रष्टव्य,
प्रमाणवार्तिक,(स्ववृत्ति), १२, पृ.५ २२२. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण १२७ एवं १२९ २२३.(१) अस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ।- परीक्षामुख, ३.६६
(२) अस्तीह सहकारफले रूपविशेष; समास्वाद्यमानरसविशेषात्, इति सहचरस्य ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.८२ २२४.(१) सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ।-परीक्षामुख , ३.६०
(२) वादिदेवसूरि कहते हैं- सहचारिणोः परस्परस्वरूपपरित्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तेश्च सहचरहेतोरपि प्रोक्तेषु नानप्रवेशः।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.७६
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