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________________ अनुमान-प्रमाण २५१ कार्य में व्यापार स्वीकार करते हैं तो इस प्रकार आस्वाद्यमान रस का हेतु अतीत का रस अथवा भावी रूप हो जायेगा । तब वर्तमान एवं अतीत रूप की प्रतीति नहीं होगी एवं धर्मकीर्ति का यह कथन भी अयुक्त हो जायेगा कि “अतीत एवं वर्तमान कालीन पदार्थों (साध्यों) का ही कार्य हेतु द्वारा बोध होता है न कि अनागतों का।२१६ यदि कृत्तिकोदय रूप हेतु भरणी-उदय और रोहिणी उदय में से किसी एक का कार्य है तो फिर भरणी एवं रोहिणी उदय में से कृत्तिकाहेतु द्वारा एक का ही ज्ञान होगा।२१७ __ बौद्ध इस सम्बन्ध में यह तर्क देते हैं कि काल से व्यवहित कार्यकारण रूप पदार्थ भी उपलब्ध होते हैं। निद्रा के अनन्तर अतीत जाग्रदोध रहता है तथा मरणादि असद्भूत होते हुए भी अरिष्ट (मृत्यु सूचक लक्षण) आदि कार्य को करते हैं अर्थात मरणभावीकाल में होने वाला है और उसका अरिष्ट (मृत्यु सूचक लक्षण) रूप कार्य पहले होता है,अतः कारण बाद में एवं कार्य पहले भी देखा गया है। अतः कार्य हेतु से ही कारण का अनुमान होता है । इस आशंका का माणिक्यनन्दी२१“प्रभाचन्द्र १९ एवं वादिदेवसूरि ने निराकरण किया है। यहां वादिदेव कृत निराकरण प्रस्तुत है। वादिदेवसूरि बौद्ध मंतव्य का खण्डन करते हुए कहते हैं कि अतीत की जागरित अवस्था का ज्ञान सुप्तोत्तरकालभावी वर्तमान के प्रति कारण नहीं हो सकता,क्योंकि ये दोनों कारण व्यवहित होने से व्यापार रहित हैं । व्यापार पूर्वक कार्य के प्रति कोई पदार्थ कारण बनता है। जिस प्रकार कि कुलाल की घट के प्रति कारणता सव्यापार है। सर्वत्र कार्यकारणभाव अन्वय-व्यतिरेक पूर्वक होता है और अन्वयव्यतिरेक कार्य के कारणव्यापार की अपेक्षा रखने पर ही होते हैं। जिस प्रकार कि कुम्भ अपनी उत्पत्ति में कुम्भकार के व्यापार की अपेक्षा रखता है । अनागत मरण एवं अतीत जाग्रद्दशा का क्रमशः अरिष्ट एवं वर्तमान जागरण के प्रति व्यवहित होने से कारण होना उपयुक्त नहीं,यदि फिर भी कारण माना जाय तो अतिप्रसक्ति होगी। परम्परा से व्यवहित अन्य पदार्थों को भी फिर किसी कार्य के प्रति कारण बनने से नहीं रोका जा सकता।२२० बौद्ध प्रश्न करते हैं कि अरिष्ट और भावी मरण में कार्यकारण भाव किस प्रकार हो जाता है? प्रभाचन्द्र इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि अविनाभाव से एक को देखकर दूसरे का ज्ञान होता है। तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति लक्षण वाले प्रतिबन्ध में भी अविनाभाव से ही ज्ञान होता है । अविनाभाव के अभाव में तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति सम्बन्ध के रहते हुए भी वक्तृत्व एवं तत्पुत्रत्व हेतु असर्वज्ञत्व एवं श्यामत्व रूप साध्य के गमक नहीं होते । तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति नहीं होने पर भी केवल अविनाभाव से कृत्तिकोदय हेतु जिस प्रकार रोहिणी के उदय का ज्ञान कराता है, उसी प्रकार चन्द्रोदय हेतु से २१६. अतीतककालानां गतिर्नाऽनागतानां व्यभिचारात् ।- प्रमाणवार्तिक (स्ववृत्ति), १२, पृ. ५ २१७. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२,पृ.३९२-९३ २१८. भाव्यतीतयोमरणजादोधयोरपि नारिष्टोदोधी प्रति हेतुत्वम् । तद्व्यापाराश्रितं हि तद् भावपावित्वम् ।- परीक्षामुख, ३.६२-६३ २१९. प्रमेयकमलमार्तण्ड भाग-२, पृ.३९४-३९८ २२०. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.६८-७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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