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________________ अनुमान-प्रमाण २४७ के अनुमान से उसके रूप का अनुमान किया जाता है।२०४ सजातीय रूपक्षण अन्य सजातीय रूप क्षण को उत्पन्न करता हुआ ही विजातीय रसादि अन्य क्षण की उत्पत्ति में समर्थ होता है,अन्यथा नहीं। इस प्रकार एक सामग्री के अनुमान से रूप का अनुमान करने वाले बौद्धों को भी ऐसा कारण हेतु अभीष्ट ही है जो अबाधित सामर्थ्य वाला हो तथा कारणान्तरों से युक्त हो।२०५ वादिदेवसूरि कहते हैं कि सौगतों को भी कारण से कार्य का अनुमान अभीष्ट है,जैसाकि धर्मकीर्ति के हेतुना यः समप्रेण कार्योत्पादोऽनुमीयते' (प्रमाणवार्तिक,३७) वाक्य से ज्ञात होता है। बौद्ध-जिससे उत्पन्न होता है वह उत्पाद है। उत्पाद का अर्थ यहां योग्यता है। उत्पन्न करने की योग्यता ही यहां अनुमेय है । वह योग्यता वस्तु से भिन्न नहीं होतीहै अतः वह स्वभाव हेतु है,कारण हेतु नहीं। धर्मकीर्ति का कथन है कि अर्थान्तर की अपेक्षा नहीं होने से कार्य को उत्पन्न करने की योग्यता रूप कारण को स्वभाव हेतु कहा गया है। २०६ वादिदेवसूरि-रात्रि में आस्वाद्यमान आमादि फल के रस रूप कार्य हेतु से उसको उत्पन्न करने वाली सामग्री का अनुमान किया जाता है। तदनन्तर उस कारण हेतु रूप सामग्री से रूपलक्षण कार्य का अनुमान होता है । २०° पूर्व रूपलक्षण अन्य सजातीय रूपलक्षण कार्य को उत्पन्न करता है इस प्रकार रूप का अनुमान करने वाले बौद्धों के द्वारा कारण को हेतु रूप स्वीकार कर ही लिया गया है ।२०८ क्योंकि बौद्धमत में पूर्व रूपलक्षण (स्वलक्षण) अन्य सजातीय रूपलक्षण को अव्यभिचरित रूप से उत्पन्न करता है । अन्यथा रस के समान काल में होने वाले रूप की प्रतिपत्ति संभव नहीं है। वादिदेव ने भी विद्यानन्द की भांति अनुकूल मात्र एवं अन्त्यक्षण में प्राप्त कारण को लिङ्ग मानने का निषेध किया है,क्योंकि मणिमन्त्रादि द्वारा अनुकूल कारण के सामर्थ्य में बाधा उत्पन्न होने पर अथवा कारणान्तर के विकल होने पर कार्य में व्यभिचार उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार अन्त्यक्षण के अनन्तर द्वितीयक्षण में कार्य का प्रत्यक्ष हो जाने से अनुमान निरर्थक हो सकता है। वादिदेव ने प्रतिपादित किया है कि कार्य के साथ अविनाभावी रूप से निश्चित एवं विशिष्ट उन्नत मेषादि ही वर्षा आदि कार्य के हेतु होते हैं। जिस कारण के सामर्थ्य में निश्चित रूप से बाधा उत्पन्न न हो तथा कारणान्तर की विकलता न हो उसी कारण का लिङ्ग होना जैन मत में स्वीकृत है अन्य का नहीं । विद्यानन्द के समान वादिदेव कहते हैं कि यदि कारण हेतु स्वीकार नहीं करेंगे तो तृप्ति आदि के लिए भोजनादि में भी प्रवृत्ति नहीं होगी,फलस्वरूप समस्त व्यवहार का उच्छेद हो जायेगा। २०४. तुलनीय, एकसामग्यधीनस्य रूपादे :सतो गतिः ।- प्रमाणवार्तिक, ३.९ २०५. द्रष्टव्य, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. ३८९-९० २०६. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,२०९ २०७.तमस्विन्यामास्वाद्यमानादामादिफलरसादेकसामन्यनुमित्या रूपाद्यनुमितिमभिमन्यमानरभिमतमेव किमपि कारणं हेतुतया यत्र शक्तेप्रतिस्खलनमपरकारणसाकल्य-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.७० २०८. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण,२०४ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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