________________
२४६
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
है। विद्यानन्द कारण हेतु को लोकव्यवहार के लिए उपयोगी मानते हैं, इसलिए उनका कथन है कि कारण हेतु का लोप होने पर तृप्ति आदि कार्यों की सिद्धि के लिए आहार आदि कारणों की प्रवृत्ति रूप समस्त ख्यात व्यवहार का लोप हो जायेगा। आहार आदि कारण से तृप्ति रूप कार्य का अनुमान लोकव्यवहार में प्रसिद्ध है। १९८ धर्मकीर्ति ने समग्र हेतु से कार्य की उत्पत्ति के अनुमान का वाक्य कहा है,९९ वह भी कारण हेतु को ही सिद्ध करता है। बौद्ध दार्शनिक यदि इसमें अर्थान्तर की अपेक्षा नहीं होने के कारण इसे स्वभाव हेतु कहते हैं २०° तो यह उपयुक्त नहीं है,क्योंकि इस प्रकार कार्यहेतु को भी स्वभाव हेतु मानने का प्रसंग आता है ।२०१ ____ माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि पर विद्यानन्द का प्रभाव है । माणिक्यनन्दी ने विद्यानन्द के मत को ही संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जैनदर्शन में वही कारण हेतु के रूप में स्वीकार किया गया है जो अप्रतिबंधित या अबाधित सामर्थ्य से युक्त होता है एवं अन्य सहकारी कारणों से भी युक्त होता है। समस्त कारणों के मिलने पर अबाधित सामर्थ्य वाला कारण कार्य का गमक होता ही है। रस से एक सामग्री में रूप का अनुमान करने वाले बौद्धों को भी कारण हेतु इष्ट ही है ।२०२ माणिक्यनन्दी ने कारण हेतु का उदाहरण दिया है-'अस्त्यत्र छाया छत्रात्"२०३ अर्थात् यहां छाया है क्योंकि छत्र है । छत्र छाया का कारण है, अतः धूप में खुले हुए छाते को देखकर अनुमान किया जा सकता है कि उसके नीचे छाया है।
बौद्धों का मन्तव्य है कि कार्य-कारण भाव के सिद्ध होने पर कार्य ही कारण का गमक होता है क्योंकि कार्य का ही कारण के साथ अविनाभाव है । कारण कार्य का गमक नहीं होता,क्योंकि कारण का कार्य के साथ अविनाभाव नहीं होता। प्रभाचन्द्र ने बौद्ध मन्तव्य का खण्डन करते हुए कहा है कि कार्य के साथ निश्चित अविनाभाव रखने वाला कारण भी कार्य का गमक होता है,यथा छाता आदि विशिष्ट कारणों से छाया आदि कार्यों का अनुमान होता देखा जाता है । विद्यानन्द के समान प्रभाचन्द्र स्पष्ट कहते हैं कि अनुकूलता रूप कारण को कारण हेतु नहीं माना गया है और न ही अन्त्यक्षण प्राप्त कारण को कारण हेतु माना गया है,क्योंकि इनमें अविनाभाव की विकलता संभव होने से व्यभिचार देखा जा सकता है । माणिक्यनन्दी द्वारा प्रस्तुत तर्क को ही प्रभाचन्द्र आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि बौद्धों के द्वारा भी आस्वाद्यमान रस से उसकी जनक सामग्री का अनुमान किया जाता है तथा सामग्री
१९८. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२१८-२२३ १९९. हेतुना यः समग्रेण कार्योत्पादोऽनुमीयते ।-प्रमाणवार्तिक, ३.७ २००. अर्थान्तरानपेक्षत्वात् स स्वभावोऽनुवर्णितः ।-प्रमाणवार्तिक, ३.७ २०१. कार्यस्थापि स्वभावत्वप्रसंगादविशेषतः । तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक, १.१३.२२६ २०२. रसादेकसामध्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छमिरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ।
-परीक्षामुख, ३.५६ २०३. परीक्षामुख, ३.६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org