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________________ अनुमान-प्रमाण २४५ अतः उनके मत में 'कारण' नामक हेतु स्वीकृत नहीं है । जैन दार्शनिकों ने बौद्ध मान्यता का खण्डन करते हुए कारण' को हेतु रूप में प्रतिष्ठित किया है । अकलङ्क, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि एवं हेमचन्द्र के ग्रंथों में कारण हेतु पर विचार किया गया है । वादिदेवसूरि ने कारण हेतु के सम्बन्ध में बौद्ध मत को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित किया है,उसे उपयोगी समझकर यहां प्रस्तुत किया जा रहा है तथा उसके अनन्तर जैनमतानुसार कारण हेतु को प्रतिष्ठित किया गया है। पूर्वपक्ष- कारण का कार्य के साथ अविनाभाव नहीं है। इसलिए कारण कार्य रूप साध्य का साधन या हेतु नहीं हो सकता। “नाऽवश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति"१९४ अर्थात् कारण आवश्यक रूप से कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं । इसलिए कारण मात्र का हेतु होना युक्त नहीं है । विनाश,प्रतिबंध (बाधा) आदि से उसमें व्यभिचार भी देखा जाता है। अनेक कारण कार्य को बिना उत्पन्न किये ही नष्ट हो जाते हैं तथा अनेक कारणों से कार्य की उत्पत्ति में बाधा आती है । जिससे कार्य की उत्पत्ति अवश्य हो ,ऐसे कारण विशेष का निर्णय विद्वान व्यक्ति भी नहीं कर सकता। यह देखा जाता है क प्रचण्ड एवं विद्युत् से चमकने वाले बादल भी वर्षा किये बिना ही उपरम हो जाते हैं। यदि अन्त्यदशावर्ती कारण ही लिङ्ग रूप से अंगीकार किया जाता है तो उसमें व्याप्ति का स्मरण करने के समय ही कार्य प्रत्यक्ष हो जाता है, अतः तब अनुमान व्यर्थ सिद्ध होता है ।१९५ उत्तरपक्ष-अकलङ्क द्धारा बौद्धमत का सीधा खण्डन नहीं किया गया है, किन्तु उन्होंने कारण' को हेतु के रूप में स्थापित करने के लिए अनेक कारण हेतुओं के उदाहरण दिये हैं, यथा-वृक्ष से छाया का ज्ञान, चन्द्रमा से जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब का ज्ञान आदि । अकलङ्कका मत है कि वृक्षादि से छाया का ज्ञान होने में कोई विसंवाद नहीं है,तथा वृक्षादि छाया के ज्ञान में न स्वभाव हेतु हैं औरन कार्यहेतु । वृक्षादि तो छाया के कारण हैं ।१९६ कारण होते हुए भी उनसे अविसंवाद रूप से छाया का ज्ञान होता है, इसलिए वृक्षादि कारणों को भी हेतु मानना चाहिए । चन्द्रमा से जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब का ज्ञान भी अव्यभिचरित रूप से होता है, अत: उसे भी कारण हेतु मानना चाहिए।१९७ बौद्ध मन्तव्य का निरसन कर कारण को हेतु रूप में प्रतिष्ठित करने का महनीय कार्य विद्यानन्द ने किया है । विद्यानन्द कहते हैं कि विशिष्ट जलद की उन्नति देखकर वर्षा का अनुमान होता है तथा वृक्ष या छत्रादि को देखकर छायाविशेष का अनुमान होता है । इसलिए कारण को हेतु मानना चाहिए । समस्त अनुकूल कारण हेतु' नहीं होते हैं, किन्तु जो कारण कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं, जिनका सामर्थ्य प्रतिबंधित नहीं होता है वे कारण ही हेतु होते हैं । बौद्ध-सम्मत अन्त्यक्षण भी विद्यानन्द के मत में कारण हेतु नहीं है,क्योंकि उसके अग्रिम क्षण में कार्य हो जाने से अनुमान व्यर्थ हो जाता १९४. तुलनीय- “नावश्यं कारणानि तद्वन्ति भवन्ति", प्रमाणवार्तिक, (स्ववृत्ति) , पृ. ३ १९५. स्याद्वादरत्नाकर, पृ.५८६ १९६. न हि वृक्षादिः छायादेः स्वभावः कार्य वा । न चात्र विसंवादोऽस्ति ।-लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कग्रन्थत्रय, पृ.५ १९७. चन्द्रादेलचन्द्रादिप्रतिपत्तिस्तथाऽनमा ।-लघीयस्त्रय,१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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