________________
२४४
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
. जैन दार्शनिकों पर हेतु-भेद निरूपण में बौद्धों का प्रभाव रहा है । यही नहीं,अपितु जैन दार्शनिकों ने न्याय, मीमांसा, वैशेषिक आदि दर्शनों में विद्यमान हेतुओं का भी अपने हेतु-भेदों में यथाशक्य समावेश कर लिया है। कारण हेतु का प्रतिपादन न्याय एवं सांख्य दर्शन में प्रतिपादित पूर्ववत् हेतु का ही संशोधित रूप है। पूर्वचरहेतु की कल्पना संभवतः मीमांसा दर्शन में प्रतिपादित “कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लृप्तिवत् ११२ वाक्य के आधार पर की गयी है। पूर्वचर के समान उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं के भेद की कल्पना जैन दार्शनिकों की अपनी देन है। विद्यानन्द द्वारा वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित भूत-भूत, भूत-अभूत आदि भेदों को तथा हेमचन्द्र के द्वारा एकार्थसमवायी,विरोधी आदि हेतुओं को अपनाया गया है। न्यायदर्शन में प्रतिपादित केवलान्वयी, केवलयतिरेकी एवं अन्वय व्यतिरेकी हेतु जैनदर्शन में प्रवेश करते हुए दिखाई नहीं दिये।
बौद्ध दार्शनिकों ने स्वभाव,कार्य एवं अनुपलब्धि इन तीन हेतु-भेदों का स्थापन करने के अनन्तर इनकी संर या में कोई वृद्धि नहीं की,किन्तु जैनदार्शनिक हेतु के अधिकाधिक भेद करने की ओर प्रवृत्त रहे । यह अवश्य है कि बौद्ध दार्शनिकों ने अनुपलब्धि हेतु के भेदों की संख्या में निरन्तर वृद्धि की है । वे अनुपलब्धि हेतु के तीन, चार,ग्यारह एवं सोलह भेद तक प्रतिपादित करते हैं । जैन दार्शनिक अकलङ्क ने हेतु के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, कुछ हेतुओं के नाम भी लिये हैं, किन्तु उन्होंने हेतु-संख्या को सीमा में आबद्ध नहीं किया, फलतः उत्तरवर्ती दार्शनिकों द्वारा हेतु -संख्या में उन्मुक्त वृद्धि की जाती रही । विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि द्वारा हेतु के मूल रूप से उपलब्धि एवं अनुपलब्धि दो भेद करना तथा दोनों के अविरुद्ध एवं विरुद्ध रूप से दो-दो भेद कर अनेक उपभेद प्रतिपादित करना उनकी अपनी सूझ-बूझ है , किन्तु उपलब्धि एवं अनुपलब्धि के रूप में विभाजन
आदि के प्रेरणा-स्रोत संभव है अकलङ्क एवं विद्यानन्द के साथ धर्मकीर्ति के ग्रंथ भी रहे हों ,क्योंकि धर्मकीर्ति के प्रतिपादन से माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरिकृत विभाजन में पर्याप्त साम्य है।
बौद्ध दार्शनिक जहां स्वभाव एवं कार्य हेतु को विधिसाधक तथा अनुपलब्धि हेतु को निषेधसाधक रूप में प्रतिपादित करते हैं,वहां जैन दार्शनिक समस्त हेतुओं को विधि एवं निषेध साधक के रूप में प्रस्तुत करते हैं,जो जैनदार्शनिकों की अपनी मौलिक देन है तथा वह बौद्ध-प्रतिपादन से उल्लेखनीय वैशिष्ट्य रखती है। पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर एवं कारण हेतु का प्रतिपादन भी जैनदार्शनिकों को बौद्धों से पृथक् करता है । जैनों द्वारा स्थापित विशिष्ट हेतु
अब उन विशिष्ट हेतुओं की चर्चा की जायेगी जिनको जैनदार्शनिकों ने बौद्ध-मान्यता के विरुद्ध पृथक् हेतुओं के रूप में स्थापित किया है । वे हेतु हैं- कारण,पूर्वचर,उत्तरचर एवं सहचर। कारण हेतु
बौद्ध दार्शनिक स्वभाव,कार्य एवं अनुपलब्धि के अतिरिक्त चतुर्थ हेतु स्वीकार नहीं करते हैं, १९३. श्लोकवार्तिक, अनुमानपरिच्छेद. १३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org