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अनुमान-प्रमाण
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(१) स्वभाव विरुद्धोपलब्धि - यथा - “सर्वथा एकान्त नहीं है, क्योंकि अनेकान्त की उपलब्धि होती है।” इसमें साध्य के विरुद्ध स्वभाव हेतु की उपलब्धि है।
(२) विरुद्धव्यापकानुपलब्धि - यथा - “यहां छाया है,क्योंकि उष्णता की उपलब्धि नहीं है।” इसमें छाया साध्य है तथा उष्णता की अनुपलब्धि उसका हेतु है।
(३) विरुद्ध सहचरानुपलब्धि - यथा - “इस पुरुष का ज्ञान मिथ्या है,क्योंकि इसके सम्यग्दर्शन का अभाव है।” यहां मिथ्याज्ञान साध्य है तथा उसके विरोधी सहचर हेतु सम्यग्दर्शन का अभाव है ।
यहां यह ध्यातव्य है कि माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख में जहां विरुद्ध व्याप्योपलब्धि भेद दिया गया है,वहां वादिदेव के प्रमाणनयतत्वालोक में विरुद्ध व्याप्तोपलब्धि भेद मिलता है । उसका उदाहरण है - "इस पुरुष को तत्त्वनिश्चय नहीं है,क्योंकि इसको संदेह है।" ।
__ आचार्य हेमचन्द्र ने हेतु के पांच भेद प्रस्तुत किये हैं,जोकणाद ८९एवं धर्मकीर्ति९° से प्रभावित हैं। पांच भेद हैं - (१)स्वभाव (२) कारण (३) कार्य (४) एकार्थसमवायी और (५)विरोधी।९१ इनमें स्वभाव,कारण,कार्य एवं एकार्थसमवायी हेतु विधिसाधक हैं तथा विरोधी हेतु निषेध साधक है । जैन दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में एकार्थसमवायी एवं विरोधी हेतु नवीन हैं । दृष्ट या अदृष्ट एक ही पदार्थ में जो हेतु समवायी रूप से साध्य के साथ रहता है वह एकार्थसमवायी कहलाता है,यथा - एक ही फल में रहे हुए रूप एवं रस में,शकटोदय एवं कृत्तिकोदय में,चन्द्रोदय एवं समुद्रवृद्धि में,वृष्टि एवं अण्डों से युक्त पिपीलिकाओं के क्षोभ में,नागवल्लीदाह एवं पत्रकोथ में एकार्थसमवायी हेतु होता है। यहां ध्यातव्य है कि हेमचन्द्र ने अकलङ्क प्रणीत पूर्वचर, उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं का समावेश एकार्थसमवायी हेतु में कर लिया है । विरोधी हेतु प्रतिषेध्य साध्य या प्रतिषेध्य साध्य के कार्य,कारण और व्यापक से विरुद्ध होता है अथवा विरुद्ध का कार्य होता है,यथा- यहां शीतस्पर्श नहीं है ,क्योंकि अग्नि है.शीत स्पर्श नहीं है.क्योंकि अप्रतिबद्ध सामर्थ्यवाले शीत के कारण नहीं हैं.आदि।१९२ ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्राचार्य ने अनुपलब्धि हेतु को विरोधी हेतु के रूप में प्रस्तुत किया है। समीक्षण
· हेतु-भेदों के निरूपण में बौद्ध दार्शनिकों की यह मौलिकता है कि उन्होंने ही भारतीय दर्शन में सर्वप्रथम स्वभाव एवं अनुपलब्धिको हेतु-भेदों में स्थान दिया । अनुपलब्धि या अभाव को मीमांसा दार्शनिकों ने एक पृथक् प्रमाण के रूप में प्रतिपादित किया है,जबकि बौद्ध दार्शनिक अभाव का ज्ञान अनुपलब्धि हेतु द्वारा करके अभाव -प्रमाण का अन्तर्भाव अनुमान में कर लेते हैं। स्वभावहेतु बौद्धों का नया प्रतिपादन है,जिसे जैन दार्शनिकों ने अपनाया है। १८९. संयोगिसमवाय्येकार्थसमवायि विरोधि च - वैशेषिकसूत्र , ३.१.८ १९०.अनुपलब्धिः स्वभावः कार्यञ्चेति ।- न्यायबिन्दु, २.११ १९१. स्वभावः कारणं कार्यमेकार्थसमवायि विरोधि चेति पंचधा साधनम् ।-प्रमाणमीमांसा, १.२.१२ १९२. प्रमाणमीमांसा, १.२.१२,पृ.४२-४५
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