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होने पर भी वह उपलब्ध नहीं है।”
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(२) अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि यथा “यहां शिशपा नहीं है, क्योंकि वृक्ष की अनुपलब्धि है । " शिशपा का वृक्षत्व के साथ व्याप्य-व्यापक भाव है। वृक्ष व्यापक है, शिंशपा व्याप्य है, अतः वृक्ष के अभाव में शिंशपा नहीं हो सकता ।
(३) अविरुद्धकार्यानुपलब्धि यथा- "यहां अप्रतिबद्ध (अबाधित) सामर्थ्य वाली अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम उपलब्ध नहीं है।" जो कार्य करने में अनुपहत शक्ति वाला है उसे अप्रतिबद्ध सामर्थ्य युक्त कहा जाता है ।
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
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(४) अविरुद्धकारणानुपलब्धि - यथा - "यहां घूम नहीं है, क्योंकि अग्नि नहीं है।" अग्नि, धूम का कारण है, अतः अग्नि के अभाव में धूम नहीं हो सकता ।
(५) अविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि - यथा- " एक मुहूर्त पश्चात् शकट नक्षत्र का उदय नहीं होगा, क्योंकि अभी कृत्तिका नक्षत्र का उदय नहीं हुआ है।”
(६) अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धि- यथा- “एक मुहूर्त पहले भरण का उदय नहीं हुआ है, क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय नहीं हुआ है। "
(७) अविरुद्ध सहचरानुपलब्धि - यथा- “तराजू में एक पलड़ा ऊँचा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा झुका हुआ नहीं है।
विरुद्धानुपलब्धि (विधिसाधक निषेध) हेतु के ३ भेद
(१) विरुद्धकार्यानुपलब्धि- साध्य से विरुद्ध अर्थ के कार्य का असदभाव । यथा - “इस प्राणी में व्याधिविशेष है, क्योंकि निरामय चेष्टा नहीं है। निरामय चेष्टा का न होना हेतु है तथा व्याधिविशेष
साध्य ।
(२) विरुद्ध कारणानुपलब्धि यथा “इस प्राणी में दुःख है, क्योंकि इष्ट के संयोग का अभाव है।” इष्ट के संयोग का अभाव हेतु है तथा दुःख साध्य है ।
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१८८. द्रष्टव्य, प्रमाणनयतत्त्वालोक ३.६७-३.१०९
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(३) विरुद्ध स्वभावानुपलब्धि - यथा “वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि उसका एक स्वरूप उपलब्ध नहीं है । "
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वादिदेवसूरि ने भी माणिक्यनन्दी द्वारा प्रतिपादित हेतु भेदों का ही निरूपण किया है। किन्तु वे माणिक्यनन्दी से तीन हेतुभेदों का निरूपण अधिक करते हैं। माणिक्यनन्दी द्वारा जहां कुल २२ भेदों का प्रतिपादन किया गया है, वहां वादिदेवसूरि द्वारा २५ भेदों का निरूपण किया गया है । १८८ वे जिन तीन भेदों का प्रतिपादन अधिक करते हैं वे हैं
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