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________________ २३८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन दृष्टि से समीक्षा को ये ही परवर्ती नाम दिए हैं ।१७१ भट्ट अकलङ्कदेव ने साध्याविनाभाविता के बल पर(१) स्वभाव,(२) कार्य,(३) कारण,(४)पूर्वचर, (५) उत्तरचर एवं (६) सहचर इन छह हेतुओं का निरूपण किया है । १७२ पूर्वचर,उत्तरचर एवं सहचर को हेतु रूप में प्रतिष्ठापित करना अकलङ्क की विशिष्ट देन है ।१७३ प्रमाणसङ्ग्रह में अकलङ्क ने विभिन्न हेतुओं का सोदाहरण संकलन किया है, यथा - स्वभावोपलब्धि, स्वभावकार्योपलब्धि, स्वभावकारणोपलब्धि, सहचरोपलब्धि, सहचरकारणोपलब्धि, स्वभावानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि,स्वभावसहचरानुपलब्धि - स्वभावविरुद्धोपलब्धि आदि ।१७" इसके साथ अकलङ्क यह दर्शित करना चाहतेहैं कि हेतु के अनेक भेद हो सकते हैं। ____ अकलङ्कने स्वभाव एवं कार्यहेतु का स्वरूप बौद्धों के समान ही प्रतिपादित किया है तथा कारण, पूर्वचर,उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं में भी साध्य के साथ अविनाभावित्व सिद्ध कर उन्हें सद्धेतु के रूप में प्रस्तुत किया है। यहां कारण,पूर्वचर,उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं का स्वरूप दिया जा रहा है। कारण हेतु - कारण से कार्य का ज्ञान करना कारणहेतु कहा गया है । यथा, वृक्ष से छाया का ज्ञान १७५ या चन्द्र से जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब का ज्ञान ।१७६ यह ध्यातव्य है कि अप्रतिबंध सामर्थ्य युक्त कारण ही हेतु के रूप में मान्य होता है। पूर्वचर हेतु - जब साध्य और साधन में क्रमभाव हो तथा वे परस्पर कार्यकारणभाव रूप न हों, तो उनमें पूर्वभावी को साधन मानकर अनुमान किया जाता है ,तो उसे पूर्वचर हेतु कहा जाता है,क्योंकि उससे पश्चाद्भावी साध्य को सिद्ध किया जाता है । यथा - एक मुहूर्त पश्चात् शकट नक्षत्र का उदय होगा,क्योंकि अभी कृत्तिका नक्षत्र का उदय है।५७७ यहां कृत्तिकानक्षत्र,शकटनक्षत्र के उदय का पूर्वचर हेतु है। उत्तरचर हेतु- क्रमभावी साध्य-साधनों में जब पश्चाद्भावी को हेतु एवं पूर्वभावी को साध्य मानकर अनुमान किया जाता है तो वह हेतु उत्तरचर हेतु कहलाता है । यथा - “एक मुहूर्त पूर्व भरणि का उदय हो चुका है,क्योंकि अभी कृत्तिका का उदय है।” यहां कृत्तिका नक्षत्र का उदय भरणि के उदय का उत्तरचर हेतु है। सहचर हेतु - साध्य एवं साधन का जब सहभाव हो तथा किसी एक से दूसरे का अनुमान किया १७१. जैन तर्कशास्त्र में अनुमानविचार पृ. २४ १७२. सिद्धिविनिश्चयवृत्ति , ६.९,१५,१६ . १७३. कुमारिल के मीमांसा श्लोकवार्तिक में पूर्वचर हेतु का संकेत निम्नाङ्कित उदाहरण से अवश्य मिलता है, यथा “कृत्तिकोदयमालक्ष्य रोहिण्यासत्तिक्लृप्तिवत्" -श्लोकवार्तिक, अनुमानपरिच्छेद ,१३ १७४. विस्तृत विवरण के लिए द्रष्टव्य, प्रमाणसङ्ग्रह, २९-३१, १७५. न हि वृक्षादिः छायादेः स्वभावः कार्यं वा । न चात्र विसंवादोऽस्ति ।- लघीयस्त्रयवृत्ति, १२ १७६. चन्द्रादेर्जलचन्द्रादिप्रतिपत्तिस्तथानुमा ।- लघीयस्त्रय, १३ १७७. भविष्यत्प्रतिपद्येत शकटं कृत्तिकोदयात् । श्व आदित्य उदेतेति ग्रहणं वा भविष्यति ।-लघीयस्त्रय, १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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