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________________ अनुमान प्रमाण मोक्षाकरगुप्त विरचित तर्कभाषा में १६ भेद निरूपित हैं । १६७ न्यायबिन्दु में निरूपित भेदों से निम्नाङ्कित विशेष हैं - १. स्वभावविरुद्ध कार्योपलब्धि - प्रतिषेध्य के स्वभाव से विरुद्ध के कार्य की उपलब्धि, यथा “यहां तुषारस्पर्श नहीं हैं, क्योंकि धूम है। " २३७ २. कार्यविरुद्धकार्योपलब्धि - प्रतिषेध्य के कार्य से विरुद्ध के कार्य की उपलब्धि, यथा- "यहां पर शीत के अबाधित एवं समर्थ कारण नहीं हैं, . क्योंकि धूम है ।" ३. व्यापकविरुद्धकार्योपलब्धि - प्रतिषेध्य के व्यापक के विरुद्ध के कार्य की उपलब्धि, यथा"यहां तुषारस्पर्श नहीं है, क्योंकि धूम है ।" ४. स्वभावविरुद्धव्याप्तोपलब्धि - प्रतिषेध्य के स्वभाव के विरुद्ध से व्याप्त की उपलब्धि, यथा“यहां अग्नि नहीं है, क्योंकि तुषारस्पर्श है।” ५. व्यापक विरुद्धव्याप्तोपलब्धि - प्रतिषेध्य के व्यापक के विरुद्ध से व्याप्त की उपलब्धि । यथा“यह नित्य नहीं है, क्योंकि कदाचित् कार्य को उत्पन्न करता है।” जैनदर्शन में हेतु-भेद जैनदार्शनिकों ने बौद्धों से भिन्न रूप में हेतु-भेद प्रस्तुत किये हैं। वे हेतु के मूलतः उपलब्धि एवं अनुपलब्धि दो भेद करके दोनों को विधि एवं निषेध का साधक मानते हैं। १६८ वे बौद्धों के इस मत का खण्डन करते हैं कि अनुपलब्धिहेतु केवल निषेध या अभाव साधक होता है। जैन दार्शनिकों ने पूर्वचर, उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं की नवीन उद्भावना की है तथा कारणहेतु को भी हेतु के रूप में प्रतिपादित किया है। जैनदर्शन में स्थानानसूत्र में हेतु के चार भेद प्रतिपादित हैं- १६९ १. विधिविधि - जिसमें साध्य और साधन दोनों सद्भावरूप हों। २. विधिनिषेध - जिसमें साध्य विधिरूप एवं साधन निषेधरूप हो । ३. निषेधविधि - जिसमें साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप हो । ४. निषेध - निषेध - जिसमें साध्य और साधन दोनों निषेध रूप हों। इन हेतुओं को माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि ने नये नाम दिए हैं,१७० यथा - (१) अविरुद्धोपलब्धि (२) विरुद्धानुपलब्धि (३) विरुद्धोपलब्धि और (४) अविरुद्धानुपलब्धि । दरबारी लाल कोठिया ने स्थानांग सूत्र के चार हेतु-भेदों १६७. तर्क भाषा (मोक्षाकर), पृ. १६-१८ १६८. (१) सत्प्रवृत्तिनिमित्तानि स्वसम्बन्धोपलब्धयः । तथा सद्व्यवहाराय स्वभावानुपलब्धयः । सदवृत्तिप्रतिषेधाय तद्विरुद्धोपलब्धयः ॥ - प्रमाणसङ्ग्रह, २९-३० (२) स हेतुद्वेधा उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् । उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च :- परीक्षामुख, ३.५७-५८ (३) उपलब्धिर्विधिनिषेधयोः सिद्धिनिबन्धनमनुपलब्धिश्च ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.५५ १६९. अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ, णत्थि तं णत्थि सो हेऊ । - स्थानांगसूत्र, सूत्र ३३९ १७० द्रष्टव्य, परीक्षामुख ३.५३-८५ एवं प्रमाणनयतत्त्वालोक ३.६७-९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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