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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
प्रमाणवार्तिक में निम्न चार भेद प्रतिपादित हैं ।१६५
(१) विरुद्धोपलब्धि - यथा - “यहां शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि अग्नि विद्यमान है।" व्यापकविरुद्धोपलब्धि का कथन भी इसके द्वारा कर दिया गया है।
(२) विरुद्धकार्योपलब्धि - यथा - “यहां शीतस्पर्श नहीं है,क्योंकि धूम है।” (३) कारणानुपलब्धि - “यहां धूम नहीं है,क्योंकि अनुपलब्ध है”।
(४) स्वभावानुपलब्धि - “यहां धूम नहीं है,क्योंकि अनुपलब्ध है”। न्यायबिन्दु में अनुपलब्धि हेतु के प्रयोग-भेद से ग्यारह प्रकार निरूपित हैं१६६ . (१) स्वभावानुपलब्धि - इसमें प्रतिषेध्य के स्वभाव की अनुपलब्धि रहती है,यथा - “यहां धूम नहीं है,क्योंकि उपलब्धिलक्षण प्राप्त धूम की अनुपलब्धि है।"
(२) कार्यानुपलब्धि - इसमें प्रतिषेध्य अर्थ के कार्य की अनुपलब्धि रहती है,यथा - “यहां धूम उत्पन्न होने के अबाधित समर्थ कारण नहीं हैं,क्योंकि यहां धूम का अभाव है।"
(३) व्यापकानुपलब्धि - इसमें प्रतिषेध्य व्याप्य के व्यापक धर्म की अनुपलब्धि रहती है,यथा - “यहां शिशपा नहीं है,क्योंकि वृक्ष नहीं है।"
(४) स्वभावविरुद्धोपलब्धि - इसमें प्रतिषेध्य के स्वभाव से विरुद्ध की उपलब्धि पायी जाती है, यथा - “यहां शीतस्पर्श नहीं है,क्योंकि अग्नि है।” ___(५) विरुद्धकार्योपलब्धि - प्रतिषेध्य से विरुद्ध के कार्य की उपलब्धि । यथा - “यहां शीतस्पर्श नहीं है,क्योंकि धूम है।”
(६)विरुद्धव्याप्सोपलब्धि-प्रतिषेध्य के विरुद्ध से व्याप्त धर्मान्तर की उपलब्धि,यथा - "उत्पन्न वस्तु का भी विनाश ध्रुवभावी नहीं है,क्योंकि वह हेत्वन्तर की अपेक्षा रखती है।" ___(७) कार्यविरुद्धोपलब्धि-प्रतिषेध्य के कार्य के विरुद्ध की उपलब्धि,यथा “यहां शीत को उत्पन्न करने वाले अबाधित एवं समर्थ कारण नहीं हैं,क्योंकि वह्नि है।”
(८) व्यापकविरुद्धोपलब्धि - प्रतिषेध्य के व्यापक के विरुद्ध की उपलब्धि,यथा यहां तुषार स्पर्श नहीं है,क्योंकि वहि है।
(९) कारणानुपलब्धि - प्रतिषेध्य के कारण की अनुपलब्धि । यथा, “यहां धूम नहीं है, क्योंकि वह्नि का अभाव है।"
(१०)कारणविरुद्धोपलब्धि- प्रतिषेध्य के कारण के विरुद्ध की उपलब्धि । यथा- "इस पुरुष के शीतकृत रोमहर्षादि नहीं है,क्योंकि समीप में अग्निविशेष जल रही है।"
(११)कारणविरुष्कायोपलब्धि-प्रतिषेध्य के कारण के विरुद्ध कार्य की उपलब्धि,यथा- “यह प्रदेश रोमहर्षादि से युक्त पुरुष वाला नहीं है,क्योंकि यहां धूम है।" १५. विरुद्ध कार्यवोः सिटिरसिदितुपावयोः ।
दृस्वात्मनोरभावार्थानुपलब्धिश्चतुर्विधः ।।-प्रमाणवार्तिक, ३.४ १६६. सा च प्रयोगभेदाद् एकादशप्रकारा ।- न्यायबिन्दु, २.३०
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