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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
किन्तु तत्पुत्रत्व हेतु सद्हेतु नहीं है, इसलिए हेतुलक्षण में नियमवान् अन्वय-व्यतिरेक का प्रयोग किया जाता है जिससे साधन का साध्य के साथ प्रतिबंध ज्ञात हो ।' १५७. साधन का बौद्ध दार्शनिकों ने साध्य के साथ स्वभाव-प्रतिबंध या अविनाभाव स्वीकार किया है, जिससे साधन अव्यभिचरित रूप से साध्य का गमक होता है
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न्यायदर्शन में भी तत्पुत्रत्व हेतु को औपाधिक संबंध के कारण असद् हेतु या हेत्वाभास माना गया । शाकपाकजन्यत्व उपाधि के कारण तत्पुत्रत्व हेतु श्यामवर्ण बालक की सिद्धि नहीं कर सकता । साध्य के साथ लिङ्ग का स्वाभाविक सम्बन्ध होने पर ही लिङ्ग को साध्य का गमक स्वीकार किया गया है । १५९ न्यायदर्शन में प्रयुक्त 'स्वाभाविक-सम्बन्ध' शब्द बौद्धदर्शन के ‘स्वभाव-प्रतिबन्ध' एवं जैनदर्शन के “ अविनाभाव सम्बन्ध” का एकार्थक प्रतीत होता है। अर्थात् न्याय एवं बौद्ध दर्शन में भी जैनदर्शन की भांति साध्य के अविनाभावी हेतु को ही साध्य का गमक स्वीकार किया गया है। धर्मकीर्ति का स्पष्ट प्रतिपादन है कि अविनाभाव नियम के कारण हेतु तीन प्रकार का है, अविनाभाव नियम के अभाव में वे हेतुओं को हेत्वाभास प्रतिपादित करते हैं । त्रैरूप्य का समापन वे अविनाभावनियम में ही मानते हैं । न्यायदर्शन में जयन्त भट्ट भी पांचरूप्य में अविनाभाव कहते हैं - " एतेषु पञ्चसु लक्षणेषु अविनाभावो लिङ्गस्य परिसमाप्यते ।”
इससे सिद्ध होता है कि अविनाभाव के अभाव में कोई भी हेतु साध्य का गमक नहीं होता, इसलिए जैनदार्शनिकों ने संक्षेपरुचि से उसे ही हेतुलक्षण के रूप में स्वीकार किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैन दार्शनिकों ने अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व को हेतु लक्षण स्वीकार कर सूझ पूर्ण कार्य किया है, किन्तु यह लक्षण निषेधात्मक है। इसका विधिपरक या सकारात्मक पक्ष तथोपपन्नत्व है, जिसके अनुसार साध्य के होने पर ही हेतु का होना फलित होता है, और तब पक्ष एवं सपक्ष के स्वीकार करने का भी प्रश्न उठने लगता है। बौद्धों द्वारा निरूपित त्रैरूप्य लक्षण अविनाभाव के विधिपरक रूप एवं उसकी बाह्य सीमा का निबन्धन भी प्रस्तुत करता है।
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हेतु-भेद
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हेतु-लक्षण में भिन्नता होने के फलस्वरूप बौद्ध एवं जैन दर्शन में हेतु-भेदों के प्रतिपादन में भी अन्तर है। बौद्ध दार्शनिक हेतु के तीन प्रकार स्वीकार करते हैं । (१) स्वभाव (२) कार्य एवं (३) अनुपलब्धि । हेतु-भेदों का यह प्रतिपादन बौद्धों की अपनी देन है, क्योंकि इनके पूर्व न्याय वैशेषिक, मीमांसा आदि दर्शनों में स्वभाव एवं अनुपलब्धि को हेतु-भेदों में स्थान नहीं मिला है। जैन दार्शनिकों ने बौद्धों द्वारा निरूपित हेतुओं से भिन्न पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर एवं कारण हेतुओं का भी प्रतिपादन किया है, जो उनकी अपनी देन है। बौद्ध निरूपित हेतु-भेदों का भी उन्होंने अपने हेतु-भेदों
१५७. न्यायबिन्दुटीका २.५, पृ.११०
१५८. स्वभावप्रतिबन्धे हि सत्यर्थोऽर्थं गमयेत् । तदप्रतिबद्धस्य तदव्यभिचार-नियमाभावात् । - १५९. द्रष्टव्य, केशवमिश्र, तर्कभाषा, अनुमाननिरूपण । १६०. (१) त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिङ्गानि । अनुपलब्धिः स्वभावः कार्यं चेति । - न्यायबिन्दु, २.१०-११ (२) पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । - हेतुबिन्दु, पृ. ५२, प्रमाणवार्तिक, ३.१
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- न्यायबिन्दु, २.१९-२०
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