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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
हेत्वाभास का निरसन होता है,यथा कोई सर्वज्ञ है,क्योंकि वह वक्ता है।' यहा वक्तृत्व हेतु सपक्ष सर्वज्ञ में संदिग्ध है' निश्चित नहीं । १०१ विपक्षे असत्त्वमेव निश्चितम्-विपक्ष में असत्त्व ही निश्चित हो, यह हेतु का तृतीय रूप है । विपक्ष में हेतु का असत्त्व कहने से विरुद्ध हेत्वाभास का निरसन हो जाता है । विरुद्ध हेतु विपक्ष में रहता है। ‘एव' शब्द के प्रयोग से विपक्ष के एक देश में रहने वाले साधारण हेतु का निराकरण होता है यथा - 'शब्द प्रयत्नान्तरीयक है अनित्य होने से,घट के समान' । यहां अनित्यत्व हेतु प्रयत्नान्तरीयक साध्य के विपक्ष के एक देश विद्युत् आदि में रहता है। विद्युत् अनित्य है तथापि प्रयलान्तरीयक नहीं है। आकाशादि भी विपक्ष है, किन्तु उनमें अनित्यत्व हेतु नहीं रहता है। विपक्ष के एक देश में रहने से अनित्यत्व हेतु असत् है । यदि असत्त्व के पूर्व एवं' शब्द का प्रयोग किया जाता तो उसका अर्थ होता 'जो विपक्ष में ही नहीं है वह हेतु है' अर्थात् सपक्ष में तो है ही,विपक्ष में ही नहीं है । ऐसी स्थिति में 'शब्द अनित्य है,प्रयलान्तरीयक होने से' इस वाक्य में प्रयत्नान्तरीयक हेतु विद्युत् आदि में भी नहीं है,अतः वह भी फिर हेतु नहीं हो सकता था। अतः एव' का प्रयोग असत्त्व' के पूर्व नहीं किया गया। निश्चित शब्द के द्वारा 'सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिक' नामक अनैकान्तिक हेतु (हेत्वाभास) का निरास किया गया है, यथा - 'यह असर्वज्ञ है क्योंकि वक्ता है' इसमें वक्तृत्व हेतु की असर्वज्ञ के विपक्ष सर्वज्ञ से व्यावृत्ति संदिग्ध है,अतः वक्तृत्व हेतु असत् है । ०२ ___ इस प्रकार बौद्ध मत में त्रैरूप्य ही हेतु के असिद्ध,विरुद्ध एवं अनैकान्तिक दोषों का परिहार करने में समर्थ है,अतः त्रैरूप्य को ही हेतु का लक्षण अंगीकार किया गया है। जैनमत में हेतुलक्षण
जैनदर्शन में सर्वप्रथम सिद्धसेन के न्यायावतार में अन्यथानुपपत्ति को हेतु का लक्षण कहा गया है१०३ संभव है सिद्धसेन के पूर्व भी किसी अन्य जैन आचार्य ने हेतु का लक्षण अन्यथानुपपन्नत्व या अविनाभावित्व प्रतिपादित किया हो,किन्तु उसका उल्लेख सम्प्रति अनुपलब्ध है । सिद्धसेन के अनन्तर १०१.(१) प्रमाणमीमांसा, १.२.९ पृ. ३९-४०
(२)तुलनीय तस्मिन् एव सत्त्वं निश्चितमिति द्वितीय रूपम् । इहापि सत्त्वग्रहणेन विरुद्धो निरस्तः । स हि नास्ति सपक्षे । एवकारेण साधारणानेकान्तिकः । स हि न सपक्ष एव वर्तते किन्तूभयत्रापि । सत्त्वग्रहणात् पूर्वावधारणवचनेन सपक्षाव्यापिसत्ताकस्यापि प्रयत्नानन्तरीयकस्य हेतुत्वं कथितम् । पश्चाद अवधारणे त्वयमर्थः स्यात्-सपक्षे सत्त्वमेव यस्य स हेतरिति प्रयत्नानन्तरीयकत्वं न हेतः स्यात निश्चितवचनेन सन्दिग्धान्वयोऽनैकान्तिको निरस्तः। यथा सर्वज्ञःकश्चिद
वक्तृत्वात् ।वक्तृत्वं हि सपक्षे सर्वज्ञे सन्दिग्धम् ।-धर्मोत्तर, न्यायविन्दुटीका, २.५ पृ.१०७ १०२.(१) प्रमाणमीमांसा, १.२.९, पृ.४०
(२) तुलनीय-तस्मिन् असत्त्वमेव निधितं तृतीय रूपम् । तत्रासत्त्वग्रहणेन विरुद्धस्य निरासः । विरुद्धोहि विपक्षेऽस्ति । एवकारेण साधारणस्य विपक्षकदेशवृत्तेनिरासः । प्रयत्लानन्तरीयकत्वे साध्ये ह्यनित्यत्वं विपक्षकदेशे विद्युदादौ अस्ति । आकाशादौ नास्ति । ततो नियमेनास्य निरासः। असत्त्वशब्दाद हि पर्वस्मिन अवधारणेऽयमर्थः स्यात्विपक्ष एव यो नास्ति स हेतुः । तथा च प्रवलानन्तरीयकत्वं सपक्षेऽपि सर्वत्र नास्ति । ततो न हेतुः स्यात् । ततः पूर्व न कृतम् ।
निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽनैकान्तिको निरस्तः।-धर्मोत्तर, न्यायबिन्दुटीका , २.५ १.१०८-१०९ १०३. अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् ।- न्यायावतार, २२
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